________________ तत्र 'यथोद्देशं निर्देशः' इति कृत्वा लक्षणभेदं तावदाह जमभिनिबुज्झइ तमभिनिबोहो जं सुणइतं सुयं भणियं। सदं सुणइ जइ तओ नाणं तो नाऽऽयभावो तं॥१८॥ [संस्कृतच्छाया:- यदभिनिबुध्यते तदभिनिबोधः, यत् श्रृणोति तत् श्रुतं भणितम्। शब्दं शृणोति यदि सको ज्ञानं ततो नात्मभावस्तत्॥] . यज्ज्ञानं कर्तृ, वस्तु कर्मताऽऽपन्नमभिनिबुध्यतेऽवगच्छति तज्ज्ञानमभिनिबोधस्तदाभिनिबोधिकं तद् मतिज्ञानमिति यावत्, 'जं सुणईत्यादि'। यत् पुनर्जीवः शृणोति तच्छृतम्, इत्येवं सूत्रोक्तलक्षणभेदाद् मति-श्रुतयोर्भेदः / तथा च सूत्रम्- 'जइ वि सामित्ताईहिं अविसेसो, तह वि पुणोऽत्थाऽऽयरिआ नाणत्तं पण्णवयंति, तं जहा- अभिनिबुज्झइ त्ति आभिणिबोहियं, सुणेइ त्ति सुयं' इत्यादि। अब भाष्यकार 'यथोद्देश निर्देश के अनुरूप (अर्थात् मति-श्रुत के परस्पर-भेद के कारणों को जिस क्रम से उद्दिष्ट-संकेतित किया गया है, उसी के अनुरूप, क्रमप्राप्त प्रथम कारण) लक्षण-भेद का निरूपण कर रहे हैं (98) ___ जमभिनिबुज्झइ तमभिनिबोहो जं सुणइ तं सुयं भणियं / सदं सुणइ जइ तओ नाणं तो नाऽऽयभावो तं // (गाथा-अर्थः) जो ज्ञान (वस्तु को) जानता है, वह 'अभिनिबोध' है और जिसे जीव सुनता है (यानी जो सुना जाता है) वह 'श्रुत' है (इस प्रकार इन दोनों का लक्षण-भेद है)। . (शंकाकार-) जिसे जीव सुनता है, वह यदि 'श्रुत' ज्ञान है तो वह आत्म-परिणाम नहीं सिद्ध .होगा (और ऐसी स्थिति में आगमिक विरोध का संकट आएगा)।] - व्याख्याः- (यत् अभिनिबुध्यते-) (जो जानता है- इस कथन में) ज्ञान कर्ता है, जानने की क्रिया की कर्मभूत वस्तु उस ज्ञान का विषय है। वस्तु को जो जानता है वह ज्ञान अभिनिबोध है, उसे ही आभिनिबोधिक कहते हैं और वही मतिज्ञान है- यह तात्पर्य है। (यत् शृणोति-) और जिसे जीव सुनता है, वह 'श्रुत' है- इस प्रकार आगमोक्त लक्षण-भेद होने के कारण मति व श्रुत में भिन्नता है। आगम का वचन है- “यद्यपि स्वामित्व आदि की दृष्टि से इनमें कोई विशेष अन्तर नहीं है, तथापि आचार्य इनमें नानात्व (भिन्नता) का इस प्रकार निरूपण करते हैं- जो अभिनिबोधन करता है, वह आभिनिबोधिक है और जो सुनता है वह 'श्रुत' है'। ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------155