________________ इदमुक्तं भवति- ऋजुसूत्रशब्दनयौ पूर्वनयेभ्यो विशुद्धत्वात् नाम-स्थापना-द्रव्यनिक्षेपं तावद् नेच्छतः, किन्त्वेकमेव भावनिक्षेपमभ्युपगच्छतः, केवलं समभिरूढैवंभूतनयाऽपेक्षयाऽविशुद्धत्वाद् विभिन्नानेकपर्यायाभिधेयत्वेऽपि भावनिक्षेपस्य संग्रहमेकत्वमेव प्रतिपद्येते, न भिन्नत्वमिति भावः। ततश्चैतन्मतेन यदेव मङ्गलशब्दवाच्यं भावमङ्गलं प्रत्यूहोपशमकाऽनिष्टविघातकृद्विघ्नापहरणादिशब्दानामपि तदेव वाच्यम, न भिन्नम, इति तात्पर्यम्। 'उवरिमया विवरीआ-इत्यादि'। उपरितनौ तु समभिरूद्वैवंभूतौ नयौ ऋजुसूत्र-शब्दनयाऽपेक्षया विपरीतौ, भिन्नानेकपर्यायाऽभिधेयस्य भावस्यैकत्वं नेच्छतः, किन्तु भिन्नत्वमभ्युपगच्छतः। तथाहि- समभिरूढमतेनाऽन्यदेव मङ्गलशब्दवाच्यं भावमङ्गलम्, अन्यच्च प्रत्येकं प्रत्यूहोपशमकादिपर्यायवाच्यम्। एवम्भूतस्याऽप्येवमेव, केवलमयं पूर्वस्माद् विशुद्धत्वादेकपर्यायाभिधेयमपि भावमङ्गलं भावमङ्गलकार्यं कुर्वदेव मन्यते, नाऽन्यदा, यथा धर्मोपकरणान्वितः सम्यक्चारित्रोपयोगे वर्तमानः साधुरिति। तदेवमृजुसूत्र-शब्दनयाऽभ्युपगमापेक्षया विपरीताभ्युपगमपरत्वाद् विपरीतावेतौ ।'तोत्ति'-तस्माद् भावं भावमङ्गलादिकमर्थं नियतं निश्चितं पर्यायभेदा भिन्त:- भेदेनेच्छत-इत्यर्थः, यदि हि पर्यायभेदेऽपि वस्तुनो न भेदः, तर्हि घट-पटादीनामपि स न स्यादित्यादियुक्तेः पर्यायभेदेन भिन्नमेव भावमङ्गलमभ्युपगच्छत इति भावः // इति गाथाद्वयार्थः // 76 // 77 // कर, एकमात्र भाव यानी भावनिक्षेप का संग्रहण करते हैं अर्थात् अभिन्न व एकत्व के साथ वस्तु का कथन-प्रतिपादन करते हैं। तात्पर्य यह है कि पूर्व नयों से ऋजुसूत्र व शब्द नय -ये दोनों नय विशुद्ध हैं, इसलिए नाम, स्थापना व द्रव्य- इन तीन निक्षेपों को वे (स्वीकार करना) नहीं चाहते, किन्तु एकमात्र भावनिक्षेप को ही. (स्वीकार करना) चाहते हैं। किन्तु समभिरूढ़ व एवंभूतनय की अपेक्षा से अविशुद्ध होने के कारण. अनेक पर्यायों के कथन करने योग्य भाव निक्षेप का, उसका संग्रह यानी एकत्व के साथ ही प्रतिपादन करते हैं, अर्थात् भिन्नता का प्रतिपादन नहीं करते हैं। इस प्रकार इन दोनों के मत में विघ्न के उपशमन, अनिष्टविघातक व विघ्न-अपहर्ता इत्यादि विविध शब्दों से जो एक ही अर्थ वाच्यकथनीय होता है, वह (एक) भावमङ्गल ही (अनेक) मङ्गल शब्दों का वाच्य है, भिन्न-भिन्न नहीं- यह तात्पर्य है। ऊपर के जो दो, समभिरूढ़ व एवंभूत नय हैं, वे ऋजूसूत्र व शब्दनय की तुलना में विपरीत हैं, अर्थात् वे विभिन्न अनेक पर्यायों से वाच्य होने वाले भाव की एकता नहीं (ग्रहण करना) चाहते, किन्तु उनमें भिन्नता ही स्वीकारते हैं। जैसे कि समभिरूढ़ नय के मत में मङ्गलशब्द से वाच्य भावमङ्गल कुछ और (पृथक) है और प्रत्यूह-उपशमक (विघ्न-शमक) आदि विभिन्न (पृथक्-पृथक्) पर्यायों के, और उनमें से प्रत्येक के वाच्य भिन्न-भिन्न (पृथक्-पृथक्) हैं। एवंभूत नय का भी यही मत है, केवल यह पूर्व नय से विशुद्ध होने से, एक पर्याय से वाच्य भावमङ्गल को भी, तभी मान्य करता है जब वह भावमङ्गल (वर्तमान में) किया जा रहा हो, अन्य को नहीं, जैसे वह 'धर्मोपकरण से युक्त सम्यक् चारित्र उपयोग में वर्तमान साधु' को ही भावमङ्गल रूप से मानता है। इस प्रकार ऋजूसूत्र व शब्द नय की मान्यता को यदि दृष्टि में रखें तो उनसे विपरीत मान्यता के कारण (समभिरूढ़ व एवंभूत नय-) ये दोनों विपरीत हैं। इसलिए ये भावमङ्गल आदि अर्थ में भी ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 121