________________ तस्य च नमस्कारस्य, सर्वाणि च तानि श्रुतानि चाऽऽवश्यकश्रुतस्कन्धादीनि तदभ्यन्तरता प्रतीयते। कुतः?, इत्याहसकलमाङ्गलिकवस्तुनः प्रथमं च तन्मङ्गलं च प्रथममङ्गलं तदध्यवसायेन सर्वश्रुतस्यादौ ग्रहणं प्रथममङ्गलग्रहणं तस्मात्; इदमुक्तं भवति- "मङ्गलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मङ्गलं" इति वचनात् प्रथममङ्गलत्वाभिप्रायेण सर्वश्रुतानामादौ नमस्कारस्य ग्रहणात् तदभ्यन्तरता प्रतीयत एव। कारणान्तरमप्याह- 'जं चेत्यादि' यद् यस्माच्चाऽसौ नमस्कारो नन्द्यध्ययने आवश्यक-दशवैकालिकादिश्रुतस्कन्धवत् तेभ्यः पृथक् ‘सुअक्खंधो त्ति' श्रुतस्कन्धत्वेन न पठ्यते, येनाऽस्य पृथक् तेभ्यः श्रुतस्कन्धरूपता स्यात्, श्रुतरूपश्चाऽसौ, ततः पृथक् श्रुतस्कन्धत्वाभावे सामर्थ्यात् सर्वश्रुताभ्यन्तरतैवाऽस्य न्याय्या। तस्माद् नन्द्यध्ययनेऽप्यस्य श्रुतस्कन्धत्वेन पृथगनुपादानं सर्वश्रुताभ्यन्तरताज्ञापनार्थमेव // इति गाथार्थः॥१०॥ यतश्चैवं नन्द्यां श्रुतस्कन्धत्वेन पृथगनुपादानात् सर्वश्रुताभ्यन्तरत्वेन ज्ञापितोऽसौ नमस्कारः, तत एवैतत् कृतं भद्रबाहुस्वामिना। किम्?, इत्याह व्याख्याः- आवश्यक आदि श्रुतस्कन्ध रूपी जो समस्त श्रुत हैं, उनमें उस नमस्कार की अन्तर्गतता (स्पष्ट) प्रतीत होती है। (प्रश्न-) कैसे? (उत्तर में) इसलिए कहा- चूंकि नमस्कार सकल मांगलिक वस्तुओं में प्रथम (उत्कृष्ट) है, इस अभिप्राय से समस्त श्रुत के प्रारम्भ में 'पञ्च नमस्कार' का ग्रहण हो जाता है, इसलिए (वह श्रुत के अन्तर्गत है)। तात्पर्य यह है कि चूंकि मङ्गलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मङ्गलं -अर्थात् 'यह नमस्कार सभी मङ्गलों में प्रथम मङ्गल है'- ऐसा (आगम-) वचन है, इस आधार पर प्रथम मङ्गल के रूप में समस्त श्रुत के आदि में (अर्थात् उसके प्रारम्भिक अंग के रूप में) 'नमस्कार' गृहीत हो जाता है, अतः यह उस (श्रुत) के अन्तर्गत (है-ऐसा स्पष्ट) प्रतीत (सिद्ध) होता है। (इसी प्रसङ्ग में) अन्य कारण भी बता रहे हैं-जं च (इत्यादि)। चूंकि 'नन्दी' अध्ययन (सूत्र) में आवश्यक, दशवैकालिक, आदि श्रुतस्कन्धों का जैसे पृथक्-पृथक् कथन किया गया है, उस प्रकार इस (नमस्कार) को एक पृथक् श्रुतस्कन्ध के रूप में नहीं पढ़ा है (निर्दिष्ट नहीं किया है), (यदि पढ़ा जाता तो) उन (दशवैकालिक आदि) से पृथक् इस (नमस्कार) की श्रुतस्कन्धरूपता मानी जाती। चूंकि यह (नमस्कार) श्रुतरूप है, इसलिए इसका अस्तित्व पृथक् श्रुतस्कन्ध के रूप में नहीं है, अतः यह समस्त श्रुत के अन्तर्गत (अङ्गभूत) है- यह मानना न्यायोचित है। इसीलिए, नन्दी अध्ययन में भी इस (नमस्कार) का एक पृथक् श्रुतस्कन्ध के रूप में पठित (निर्दिष्ट) न होना इस (नमस्कार) की समस्त श्रुत-अभ्यन्तरता का ज्ञापन करता है। यह गाथा का अर्थ हुआ // 10 // चूंकि नन्दीसूत्र में पृथक् श्रुतस्कन्ध के रूप में पठित न होने से इस नमस्कार को समस्त श्रुत के अन्तर्गत माना गया है, क्या इसी कारण से आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने सर्वप्रथम इस नमस्कार को किया है? इस (प्रश्न के समाधान के) लिए कह रहे हैंMa 34 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------