________________ अत्राह- ननु मङ्गलपदार्थज्ञानोपयोगमात्रेण कथं सर्वोऽपि वक्ता भावमङ्गलमुच्यते?, तदुपयोगमात्रस्येव तद्रूपताया युक्तिसंगतत्वात्, न ह्यग्निज्ञानोपयुक्तो माणवकोऽग्निरेव भवितुमर्हति, दाह-पाकादिक्रियाकरणप्रसङ्गादिति। अत्रोच्यते- उपयोगः, ज्ञानं, संवेदनं, प्रत्यय इति तावदनान्तरम्, अर्थाभिधानप्रत्ययाश्च लोके सर्वत्र तुल्यनामधेयाः, बाह्यः पृथुबुधनोदराऽऽकारोऽर्थोऽपि घट उच्यते, तद्वाचकमभिधानमपि घटोऽभिधीयते, तज्ज्ञानरूपः प्रत्ययोऽपि घटो व्यपदिश्यत इत्यर्थः, तथा हि लोके वक्तारो भवन्ति- किमिदं पुरतो दृश्यते?, घटः, किमसौ वक्ति?, घटम्, किमस्य चेतसि स्फुरति? घटः। एवं च सति यद् घट इति ज्ञानं तदव्यतिरिक्तो ज्ञाता तल्लक्षणो गृह्यते, अन्यथा यदि ज्ञानज्ञानिनोरव्यतिरेको न स्यात् तदा ज्ञाने सत्यपि ज्ञानी नोपलभेत वस्तुनिवहम्, अतन्मयत्वात्, प्रदीपहस्तान्धवत्, पुरुषान्तरवद्। न चाऽनाकारं तज्ज्ञानम्, पदार्थान्तरवद् विवक्षितपदार्थस्यांऽप्यपरिच्छेदप्रसङ्गात्। अपि च, घटादिज्ञान-तद्वतोर्व्यतिरेके (कर्म-) बन्धाद्यभावः प्राप्नोति, यथा हि ज्ञाना-ऽज्ञान-सुखदुःखादिपरिणामस्याऽन्यत्वे आकाशस्य बन्धादयो न भवन्ति, एवं जीवस्यापि न भवेयुरिति भावः॥ यहां आशंकाकार का कथन है- मङ्गल पदार्थ सम्बन्धी ज्ञानोपयोग होने मात्र से समस्त वक्ता कैसे भावमङ्गल कहे जा सकते हैं? अगर कहा जाय तो अग्नि के ज्ञान-उपयोग मात्र से कोई व्यक्ति अग्निरूप कहा जाएगा, किन्तु (व्यवहार में ऐसा होता नहीं देखा जाता)।अग्निज्ञान-उपयोगयुक्त माणवक (बालक) अग्नि ही होता हो -ऐसा नहीं होता, अन्यथा उस (माणवक) से दाह व पाक क्रिया का प्रसंग उपस्थित हो जाएगा। - इसका समाधान इस प्रकार कहा जा रहा है- उपयोग, ज्ञान, संवेदन, प्रत्यय -ये सभी एक ही अर्थ के वाचक हैं (पर्याय हैं)। पदार्थ, उनके नाम तथा उनकी प्रतीति (ज्ञान) - इन तीनों को लोक में सर्वत्र एक ही नाम से पुकारा जाता हैं। (जैसे-) चौड़े फैलाव वाले उदर के आकार से युक्त पदार्थ को भी 'घट' कहते हैं, उस घट पदार्थ के अभिधायक शब्द को भी 'घट' कहते हैं, और घट-ज्ञान रूप भी 'घट' कहा जाता है। इसीलिए. लोक में ऐसा लोग (बोलचाल में प्रश्नोत्तर रूप में) बोलते हैं- (प्रश्न) यह सामने क्या दिखाई दे रहा है? (उत्तर-) घट / (प्रश्न) यह क्या बोल रहा है? (उत्तर-) घट। (प्रश्न) इसके हृदय में क्या स्फुरित हो रहा है? (उत्तर-) घट। इस प्रकार, 'घट' इस प्रकार का जो ज्ञान है, उसका ज्ञाता उस ज्ञान से अभिन्न है, इसलिए वह ज्ञान-लक्षण वाला ज्ञाता भी 'घट' रूप में जाना जाता है। अन्यथा यदि ज्ञान व ज्ञानी में अभेद न माना जाय तो ज्ञान होने पर भी व्यक्ति को वस्तु-समूह का ग्रहण (ज्ञान) नहीं हो पाएगा, क्योंकि ज्ञानसंपन्न (होने पर भी वह) व्यक्ति ग्रहणयोग्य वस्तुविशेष से तन्मय नहीं है। उदाहरणार्थ- (तन्मय न होने पर ही) प्रदीप हाथ में लिए हुए (भी) अन्धा व्यक्ति उस प्रदीप को देख नहीं पाता। इसी तरह (पदार्थ-विशेष के ज्ञाता से भिन्न) किसी अन्य पुरुष को भी (उक्त पदार्थ-विशेष का) ज्ञान नहीं हो पाता। (किसी वस्तु विशेष का ज्ञान तभी होता है, जब व्यक्ति का ज्ञान गुण उस वस्तु-विशेष से जुड़ कर 'तदाकार' हो जाता है।) यदि ज्ञान को (वैसा न मान कर) 'अनाकार' रूप में भी उसका होना माना जाय तो जैसे (ज्ञेय पदार्थ से भिन्न) अन्य पदार्थ का ज्ञान नहीं होता, वैसे ही विवक्षित (इच्छित) पदार्थ के ज्ञान न होने की स्थिति उत्पन्न 9 82 --....,82 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------