________________ ननु मृत्पिण्डादीनां कार्यभूताः स्थास-कोश-कुशूल-घटादयः प्रत्यक्षेणैव दृश्यन्ते, संबन्धिशब्दश्च कारणशब्दः सर्वदैव कार्यापेक्ष एव प्रवर्तते, तत् कथं कारणमात्रमेवाऽस्ति, न कार्यम्?, इति चेत्। नैवम्, आविर्भाव-तिरोभावमात्र एव कार्योपचारात्, उपचारस्य चाऽवस्तुत्वात्। इति स्वपक्षं व्यवस्थाप्य परपक्षं दूषयितुमाह-'आगारेत्यादि / द्रव्यमानं विहाय स्थापनादिनयैर्यदाऽऽकारादिकमभ्युपगभ्यते, तत् सर्वमवस्तु। कुतः?, इत्याह- निष्कारणत्वात् कारणमात्ररूपतयाऽनभ्युपगमात्, तदभ्युपगमे त्वस्मत्पक्षवर्तित्वप्रसङ्गात्, इह यत् कारणं न भवति तद् न वस्तु, यथा गगनकुसुमम्, अकारणं च परैरभ्युपगम्यते सर्वमाकारादिकम्, अतोऽवस्तु // इति गाथार्थः // 68 // तदेवं द्रव्यनयेन स्वपक्षे व्यवस्थापिते भावनयः प्राह भावत्थंतरभूअं किं दव्वं नाम भाव एवायं / भवनं पइक्खणं चिय भावावत्ती विवत्ती य॥१९॥ (अब शंकाकार पुनः शंका करता है-) स्थास-कोश-कुशूल व घट आदि पदार्थ मृत्-पिण्ड आदि के कार्य हैं- ऐसा प्रत्यक्ष ही दिखाई देता है, और 'कारण' शब्द भी सम्बन्ध-सहित होता है, कार्य की अपेक्षा रखकर ही 'कारण' शब्द व्यवहार में प्रयुक्त होता है, इसलिए आपका यह कथन कि 'कारणमात्र का ही सद्भाव है, कार्य का नहीं' किस प्रकार संगत है? इस शंका का समाधान दे रहे हैं- आपकी शंका संगत नहीं है, क्योंकि मात्र आविर्भाव व तिरोभाव में ही कार्य का उपचार किया जाता है और उपचार 'अवस्तु' ही होता है। . इस प्रकार स्वपक्ष को स्थापित कर, परकीय पक्ष में दोष प्रदर्शित करने हेतु कहा- आकारादि वस्तु नहीं है- इत्यादि / द्रव्यमात्र को छोड़कर, स्थापना आदि नयों द्वारा जो आकार आदि स्वीकारे जाते है, वह सब (चूंकि इन्हें 'कारण' नहीं माना जाता, और आकार आदि का कोई कार्य भी नहीं है, इसलिए) 'अवस्त' है। कैसे (अवस्त है)? उत्तर दिया-कारण न होने से. अर्थात उसे मात्र कारण रूप से स्वीकारा नहीं जाता है, इसलिए / यदि (आकार आदि को) कारणमात्र रूप से स्वीकारा जाय तो हमारे पक्ष की ही स्थिति (सिद्धि) हो जाएगी। क्योंकि इस संसार में जो कारण नहीं होता, वह वस्तु भी नहीं होता, जैसे आकाशपुष्प / अन्य पक्ष ने समस्त आकार आदि को अकारण माना है, अतः वह ‘अवस्तु' ही है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 68 // (भावनय) इस प्रकार, द्रव्यनय की ओर से अपना-पक्ष प्रस्तुत कर दिये जाने पर, 'भावनय' का कथन इस प्रकार है // 69 // भावत्थंतरभूअं किं दव्वं नाम? भाव एवायं / __ भवनं पइक्खणं चिय, भावावत्ती विवत्ती य॥ ---------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ---- 105