________________ द्विष्ठत्वेन भिन्नकालयोस्तदसंभवात्, अन्यथा भविष्यच्छङ्कचक्रवादीनामतीतैः सगरादिभिरपि संबन्धप्राप्तेः। तृतीयविकल्पपक्षेऽपि घटाऽभावयोर्यदि क्षणमात्रमपि सहावस्थितिरभ्युपगम्यते, तसंसारमप्यसौ स्यात्, विशेषाभावात्, तथा च सति स एव घटादेस्तादवस्थ्यप्रसङ्गः। घटाधुपमर्दैनाऽभावो जायते, अतो घटादिनिवृत्तिः, इति चेत्। ननु कोऽयमुपमर्दो नाम? / न तावद् घटादिः, तस्य स्वहेतुत एवोत्पत्तेः। नापि कपालादयः, तद्भावे घटादेस्तादवस्थ्यप्रसङ्गात्। नापि तुच्छरूपोऽभावः, एवं हि सति घटाद्यभावेन घटाद्यभावो जायत इत्युक्तं स्यात्, न चैतदुच्यमानं हास्यं न जनयति, आत्मनैवाऽत्मभवनानुपपत्तेः। तस्माद् मुद्गरादिसहकारिकारणवैसदृश्याद् विसदृशः कपालादिक्षण उत्पद्यते, घटादिस्तु क्षणिकत्वेन निर्हेतुकः स्वरसत एव निवर्तते, इत्येतावन्मात्रमेव शोभनम् / अतो हेतुव्यापारनिरपेक्षा एव समुत्पन्ना भावाः क्षणिकत्वेन स्वरसत एव विनश्यन्ति, न हेतुव्यापारात्, इति स्थितम्। विकल्प (पक्ष) आपको मान्य है? यदि आदि के दो पक्ष मानते हैं तो सम्बन्ध ही नहीं ठहरता क्योंकि सम्बन्ध द्विष्ठ होता है, अतः भिन्न-भिन्न काल में रहने वाली दो वस्तुओं का परस्पर सम्बन्ध असम्भव है, अन्यथा भावी शंख चक्रवर्ती आदि का अतीत के सगर आदि के साथ भी सम्बन्ध होने लगेगा। तीसरे विकल्प (मुगद्रादि से तुच्छता रूप अभाव होता है- ऐसा) मानने में भी दोष यह आएगा कि यदि घट और अभाव की क्षणमात्र भी साथ विद्यमानता मानी जाए तो संसार-स्थिति तक उसे रहना चाहिए, क्योंकि उसके न होने का कोई विशेष कारण नहीं है, और ऐसा होने पर घटादि की तदवस्थता रूप पूर्वोक्त दोष आ जाएगा। - “घट आदि के उपमर्द (घट पर मुद्गर के दबाव, आघात आदि) से (घट का) अभाव होता है, इसके फल स्वरूप घट आदि की निवृत्ति हो जाती है"- ऐसा कहना भी युक्तियुक्त नहीं। क्योंकि यहां प्रश्न उठेगा कि यह 'उपमर्द' क्या है? वह घटादि तो हो नहीं सकता, क्योंकि वह (मुद्गर से नहीं, अपितु) अपने नियत हेतुओं से ही उत्पन्न होता है। कपाल आदि भी नहीं है, क्योंकि ऐसा हो तो घट आदि की 'तदवस्थता' (पूर्ववत् अविनष्ट बने रहने) का दोष आ जाएगा। वह (उपम) तुच्छरूप अभाव भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि तब 'घटादि के अभाव से घटादि का अभाव होता है' यह कथन फलित होगा. वैसा कहना हास्यास्पद नहीं है- यह नहीं है. (अर्थात हास्यास्पद ही सिद्ध होगा). क्योंकि स्वयं अपने द्वारा स्वयं को उत्पन्न करना असंगत है। इसलिए, मुद्गर आदि सहकारी कारण से विसदृश (तुल्यता न रहने वाले, विलक्षण) कपालादि क्षण ही उत्पन्न होता है, घटादि तो क्षणिक होने से स्वतः ही निवृत्त हो जाता है- ऐसा कहना ही ठीक रहेगा / अतः यह सिद्ध हुआ कि हेतु-व्यापार की अपेक्षा न रखते हुए ही 'भाव' उत्पन्न होते हैं और क्षणिक होने के कारण स्वतः विनष्ट हो जाते हैं, (उत्पत्ति व विनाश- दोनों) में होने के कारण स्वतः विनष्ट हो जाते हैं, उस (उत्पत्ति व विनाश-दोनों) में कोई हेतु-जनित व्यापार कारण नहीं है। Ma 110 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------