________________ इत्थं सर्व वस्तु चतूरूपाऽविनाभूतं दृष्टम्, एवमेव सम्यग्दर्शनव्यवस्थानात्, सर्वनयसमूहात्मकत्वाजिनमतस्य / तदेवं सर्वस्यापि वस्तुनश्चतूरूपतायां किमुच्यते इह भावो च्चिय वत्थु तयत्थसुन्नेहिं किं व सेसेहिं' [इह भाव एव वस्तु तदर्थशून्यैः किं वा शेषैः?] इत्यादि? न होकस्मिन्नेव वस्तुन्येककालं विद्यमानानां पर्यायाणां मध्ये 'अयं वस्तु' 'अपरस्त्ववस्तु' इति वक्तुं शक्यते, द्रव्यरूपतया सर्वेषामपि तेषामेकत्वादिति भावः॥ इति गाथार्थः॥६० // अस्मिंश्च नामादिरूपचतुष्टये नामनयः प्रधानं नामैव मन्यते। तत्र ये सुगतमतानुसारिणो "न ह्यर्थे शब्दाःसन्ति" इत्यादिवचनाद् नाम्नो वस्तुधर्मत्वमेव नेच्छन्ति, तान् प्रति नामनयः प्राह वत्थुसरूवं नामं तप्पच्चयहेउओ सधम्म व्व। वत्थुनाऽणभिहाणा होजाऽभावो विवाऽवच्चो॥६१॥ [संस्कृतच्छाया:- वस्तुस्वरूपं नाम तत्प्रत्ययहेतुतः स्वधर्म इव। वस्तु नाऽनभिधानात् भवेदभाव इवाऽवाच्यः॥] नामनयस्याऽयमभिप्राय:- वस्तुनः स्वरूपं नाम, तत्प्रत्ययहेतुत्वात्, स्वधर्मवत्। इह यद् यस्य प्रत्ययहेतुस्तत् तस्य धर्मः, यथा घटस्य स्वधर्मा रूपादयः / यच्च यस्य धर्मो न भवति न तत् तस्य प्रत्ययहेतुः, यथा घटस्य धर्माः पटस्य / संपद्यते च घटाभिधानाद् इस प्रकार, समस्त (या प्रत्येक) वस्तु अपने (नाम, स्थापना, द्रव्य व भाव-इन) चार रूपों से अविनाभूत देखी जाती है, और इसी प्रकार से ही सम्यग्दर्शन की स्थिति होने से जिन-मत समस्त नयों का समूह रूप सिद्ध होता है। इस तरह, जब समस्त वस्तु (उक्त) चार रूपों वाली है, तब यह (पूर्व गाथा-55 में) 'भाव ही वस्तु है, और तदर्थशून्य अन्य नाम आदि का निरूपण क्यों' आदि कथन (स्वतः) असंगत है। (वस्तुतः)। किसी एक वस्तु में एक काल में विद्यमान पर्यायों के मध्य ‘यह वस्तु है, दूसरी अवस्तु है' यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उन सभी (पर्यायों) में द्रव्यरूप से एकत्व होता है (यदि एक में वस्तुत्व है तो सभी में वस्तुत्व मानना होगा) // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 60 // (नाम आदि वस्तु सत् है, बौद्ध मत का खण्डन) .. नामनय आदि चारों में 'नाम' को ही प्रमुख मानता है। तब जो बौद्धमत के अनुयायी हैं वे 'अर्थ में, पदार्थ में, शब्द नहीं है' इत्यादि कथन कर नाम को वस्तु-धर्म ही नहीं मानते, उनको लक्ष्य कर 'नामनय' का यह कथन है (61 वत्थुसरूवं नामं, तप्पच्चयहेउओ सधम्म व्व / वत्थु नाऽणभिहाणा, होज्जाऽभावो विवाऽवच्चो॥ [(गाथा-अर्थः) वस्तु की प्रतीति में हेतु होने से, स्वधर्म की तरह (ही) नाम (भी) वस्तु-स्वरूप है। नाम के बिना वस्तु होती नहीं, यदि हो तो वह अवाच्य वस्तु की तरह अभावरूप-असत्रूप हो जाए। व्याख्याः- नाम-नय का यह अभिप्राय है- जिस प्रकार-वस्तु का धर्म, वस्तु-प्रतीति में कारण होने से, वस्तु-स्वरूप माना जाता है, उसी प्रकार नाम भी वस्तु प्रतीति में हेतु होने से वस्तु. ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 954