________________ को हि नाम स्थापनानयस्याऽऽकारग्रहः?, यस्माद् द्रवतीति द्रव्यमनादिमदुत्प्रेक्षितपर्यायशृङ्खलाधारं मृदादि पूर्वपर्यायमात्रतिरोभावेऽग्रेतनपर्यायमात्राऽऽविर्भावः परिणामो द्रव्यस्य परिणामो द्रव्यपरिणामः स एव तन्मात्रं तद् मुक्त्वा किमन्यदाऽऽकारदर्शनम्, येनोच्यते 'आगारो च्चिय मइ-सद्द-वत्थु-' इत्यादि?। ननु द्रव्यमेव तत्। किंविशिष्टम्?, उत्पाद-व्ययरहितं, निर्विकारं- उत्फण-विफण-कुण्डलिताकारसमन्वितसर्पद्रव्यवद् विकाररहितम्, किं हि नाम तत्राऽपूर्वमुत्पन्नम्, विद्यमानं वा विनष्टम्, येन विकारः स्यात्?, इति भावः॥ इति गाथार्थः॥६६॥ ननु कथमुत्पादादिरहितमुच्यते, यावता सादिके द्रव्ये उत्फण-विफणादयः पर्याया उत्पद्यमाना निवर्तमानाश्च प्रत्यक्षेणैव दृश्यन्ते?, इत्याह आविब्भाव-तिरोभावमेत्तपरिणामकारणमचिन्तं। निच्चं बहुरूवं पि य नडो व्व वेसंतरावन्नो॥६७॥ [संस्कृतच्छाया:- आविर्भाव-तिरोभावमात्रपरिणामकारणमचिन्त्यम्। नित्यं बहुरूपमपि च नट इव वेषान्तरापन्नः॥]... व्याख्याः- स्थापना-नय का आकारग्रहण क्या है? द्रव्य यानी जो द्रवण अर्थात् अनादि काल से, देखी (होती) जा रही पर्यायों की श्रृंखला के मध्य परिणमन करता रहे, जैसे मिट्टी आदि द्रव्य में पूर्व पर्याय का तिरोभाव (नाश) तथा अग्रिम (भावी) पर्याय मात्र का आविर्भाव (अभिव्यक्ति) रूप परिणमन जो द्रव्य-परिणाम है, उसके सिवा 'आकार-दर्शन' क्या है जो आप ‘मति, शब्द आदि आकार ही है' इत्यादि कथन कर रहे हैं। वस्तुतः वह द्रव्यरूप ही है, उससे विशिष्ट-भिन्न कुछ नहीं। उत्पाद-व्यय रहित द्रव्य तो निर्विकार रहता है, तात्पर्य यह है कि फण को ऊंचा उठाए रहे, या (उससे भिन्न स्थिति में) फण नहीं उठाए, या कुंडली मारकर बैठे, इन सभी स्थितियों में विभिन्न आकारों वाला होते हुए भी सर्प द्रव्य जैसे विकाररहित (अखण्डित, अक्षुण्ण-ध्रुव) है, क्योंकि वहां (उस द्रव्य से भिन्न) कोई अपूर्व वस्तु न तो उत्पन्न हुई और न नष्ट ही हुई जो उसमें विकार माना जाय / यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 66 // पुनः कोई शंका कर रहा है कि द्रव्य को उत्पाद आदि से रहित आप कैसे कह रहे हैं? क्योंकि सर्प आदि द्रव्य में कभी फण को उठाए रहना, कभी फण नहीं उठाना आदि रूप पर्यायों को उत्पन्न व निवर्तमान (नष्ट) होते हुए प्रत्यक्ष में देखा जाता है? इस आशंका को ध्यान में रख कर भाष्यकार कह रहे हैं // 67 // आविब्भाव-तिरोभावमेत्तपरिणामकारणमचिन्तं / निच्चं बहुरूवं पि य, नडो व्व वेसंतरावन्नो // __ [(गाथा-अर्थः) (नवीन पर्याय का) आविर्भाव और (पूर्व पर्याय का) तिरोभाव-यही तो परिणाम है, जिसका कारण अचिन्त्य (स्वभावी) द्रव्य (ही) होता है। वह बहुरूपता को प्राप्त करता हुआ भी उसी प्रकार 'नित्य' है जिस प्रकार कोई नट विभिन्न वेशों को धारण करता हुआ सदैव मूलतः (निर्विकार) रहता है।] IAL 102 -------- विशेषावश्यक भाष्य --- -----