________________ [संस्कृतच्छाया:- न परानुमतं वस्तु आकाराऽभावात् खपुष्पमिव। उपलम्भ-व्यवहाराऽभावाद् नाऽनाकारं च॥] .. परस्याऽऽकारवद्वस्तुनिषेधकस्याऽनुमतमभिप्रेतं सामर्थ्याद् यदनाकारं वस्तु तद् नास्ति, आकाराभावात्, खपुष्पवत्। अपरमपि हेतुद्वयमाह-'उवलंभेत्यादि / 'नाणागारमिति' -नास्त्यनाकारं वस्तु, सर्वथैवाऽनुपलभ्यमानत्वात्, तेनाऽणीयसोऽपि व्यवहारस्याऽभावाच्च, इति पर्यन्तवर्ती चकारोऽत्र योजनीयः, खपुष्पवदिति दृष्टान्तो हेतुद्वयेऽपि स एव // इति गाथार्थः // 65 // तदेवं स्थापनानयेनोक्ते द्रव्यनयः प्राह दव्वपरिणाममित्तं मोत्तूणाऽऽगारदरिसणं किं तं?। उप्पायव्वयरहिअं दव्वं चिय निव्वियारं तं॥६६॥ [संस्कृतच्छाया:- द्रव्यपरिणाममात्रं मुक्त्वाऽऽकारदर्शनं किं तत्? उत्पादव्ययरहितं द्रव्यमेव निर्विकारं तत्॥] [(गाथा-अर्थः) अन्य (दार्शनिक) द्वारा स्वीकृत पदार्थ, आकारहीनता के कारण, आकाशपुष्प की तरह 'अवस्तु' है। अनाकार वस्तु कोई है ही नहीं, (आकाशपुष्प की तरह) उसकी, (कहीं) उपलब्धि नहीं होती है और न ही उससे (कोई लौकिक) व्यवहार हो सकता है।] व्याख्याः- आकारवान् वस्तु को नहीं मानने वाले अन्य (दार्शनिक) द्वारा स्वीकृत-अभीष्ट पदार्थ / वह युक्ति सामर्थ्य से असद्प ठहरता है, क्योंकि जो निराकार है, वह आकारहीनता के कारण आकाश-पुष्प की तरह ही अवस्तु (असद्) रूप है। इस प्रसंग में अन्य दो हेतु भी दिये जा रहे हैं- उपलंभव्यवहार-अभाव के कारण। ... (कोई भी) वस्तु अनाकार नहीं होती, क्योंकि वैसी अनाकार वस्तु (कहीं) उपलब्ध नहीं होती, और उससे अणुमात्र भी व्यवहार नहीं हो सकता। गाथा में 'च' पद (अंतिम वाक्य में भी) रखना चाहिए, (अर्थात् 'अनाकार वस्तु की अनुपलब्धि' और 'अनाकार वस्तु से व्यवहार का सम्भव न होना' इन दोनों हेतुओं को 'च' जोड़ता है।) इसी तरह 'आकाश-पुष्प की तरह'- यह दृष्टान्त भी उपर्युक्त दोनों हेतुओं में नियोजित करना चाहिए | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 65 // - (द्रव्यनिक्षेप नय) इस प्रकार स्थापना-नय द्वारा (अपना पक्ष) कहने पर द्रव्यनय (अपने पक्ष को) कह रहा है // 66 // दव्वपरिणाममित्तं मोत्तूणाSSगारदरिसणं किं तं / उप्पायव्वयरहिअं, दव्वं चिय निव्वियारं तं // [(गाथा-अर्थः) जो आकार-दर्शन है, वह द्रव्य के परिणाम मात्र को छोड़कर (अर्थात् उससे अतिरिक्त) क्या है? वह उत्पादव्ययरहित निर्विकार द्रव्य रूप (वस्तु) ही तो है।] ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 101 2