________________ घटे संप्रत्ययः, तस्मात् तत् तस्य धर्मः। सिद्धश्च हेतुरावयोः [हेतुरनयोः], घटशब्दात् पटादिव्यवच्छेदेन घट (इति) प्रतिपत्त्यनुभूतेः। सर्वं च वस्तु नामरूपतां न व्यभिचरतीति दर्शयन्नाह- 'वत्थुमित्यादि'। यदि वस्तुनो नामरूपता न स्यात् तदा तद् वस्त्वेव न भवेदिति संबन्धः। कुतः?, इत्याह- अनभिधानादभिधानरहितत्वादित्यर्थः। अवाच्योऽभिधानरहितत्वेनाऽनभिधेयो योऽसावभावः षष्ठभूतादिलक्षणस्तद्वदिति दृष्टान्तः, इह यदभिधानरहितं तद् वस्त्वेव न भवति, यथाऽभिधानरहितत्वेनाऽवाच्यः षष्ठभूतलक्षणोऽभावः, अभिधानरहितं च वस्त्वभ्युपगम्यते परैः, ततोऽवस्तुत्वमेवाऽस्य भवेद्, अवस्तुत्वे च कुतस्तत्प्रत्ययहेतुत्वलक्षणस्य हेतोवृत्तिः, येनाऽनैकान्तिकता स्यात् / तत्र तवृत्तौ वा तस्याऽपि वस्तुत्वमेव भवेत्, स्वप्रत्ययजनकत्वात्, घटादिवदिति। विपक्ष एव वृत्तेरभावाद् विरुद्धताऽप्यसंभविनीति / तस्माद् वस्तुधर्म एव नामेति स्थितम्। स्वरूप ही है। जो जिसकी प्रतीति में हेतु होता है, वह उसका धर्म होता है, जैसे रूप आदि पट के स्वधर्म हैं। जो जिसका धर्म नहीं होता, वह उसकी प्रतीति में हेतु भी नहीं होता, जैसे घट के धर्म पट . की प्रतीति में हेतु नहीं होते, अतः वे पट के धर्म नहीं होते (पट के ही होते हैं)। 'घट' इस नाम से ही 'घट' की प्रतीति होती है, इसलिए ('घट' यह नाम) घट का धर्म है। (घट का वाचक घट का ही धर्म है, पट का धर्म नहीं है) इन दोनों कथनों का हेतुत्व प्रतीतिसिद्ध है, क्योंकि घट शब्द से (घटेतर) पट आदि का व्यवच्छेद (निषेध) करते हुए 'घट' की ही प्रतिपत्ति (ज्ञानोपलब्धि) होती है- यह अनुभव में आता है। सभी (या प्रत्येक) वस्तु नाम व रूप से व्यभिचरित (रहित) नहीं होती- इसे बताने हेतु कहा- 'वस्तु नानभिधानात्' इत्यादि / यदि वस्तु नामरूपात्मक न हो तो वह 'वस्तु' नहीं (होकर अवस्तु ही) हो जाएगी- इस कथन से, 'वस्तु नाम बिना नहीं होती' इस कथन का सम्बन्ध है। (यह कथन समीचीन) कैसे? (उत्तरः-) अनभिधान यानी नाम-रहित होने सेः- यह तात्पर्य है। अभिधानरहित होने से अवाच्य वस्तु, अभाव रूप (असत्प) होती है, जैसे पृथ्वी आदि पांच भूतों के वाचक शब्द हैं, छठे भूत का कोई वाचक शब्द नहीं है, इसलिए अवस्तुभूत छठे भूत का असद्भाव है। अतः जो अभिधान-रहित होता है, वह 'वस्तु' ही नहीं होता, जैसे कि- अभिधानरहित अवाच्य छठे भूत का अभाव माना जाता है। अन्य (बौद्ध आदि) दार्शनिक वस्तु को अभिधानरहित (नामरहित) मानते हैं, तो- (उनके द्वारा स्वीकृत) उस वस्तु की अवस्तुता ही सिद्ध होगी। नामरहित पदार्थ की अवस्तुता सिद्ध होने पर, वहां 'वस्तु-प्रतीतिहेतुता' रूप हेतु का सद्भाव किसी तरह नहीं रह सकता, इसलिए 'अनैकान्तिक' दोष नहीं है। [तात्पर्य यह है कि जैनों की ओर से नाम को वस्तु-धर्म सिद्ध करने के लिए अनुमान-वाक्य प्रस्तुत किया गया था- नाम, वस्तुस्वरूप (वस्तुधर्म) है, वस्तु की प्रतीति में हेतु होने से। यहां 'नाम' पक्ष है, वस्तुस्वरूपता या वस्तुधर्मता साध्य है। वस्तु की प्रतीति में हेतु होना- यह हेतु है। जब विपक्ष में भी हेतु रहे तो वहां अनैकान्तिक दोष होता है, और तब अनुमान-वाक्य के भी दूषित होने से वह अपने मत की सिद्धि नहीं कर पाता। यहां विपक्ष- ‘अवस्तु' है, क्योंकि अवस्तु में वस्तुधर्मता रूप साध्य नहीं रह सकता है। यहां बौद्ध आदि जैनेतर की ओर से उपर्युक्त अनुमान-वाक्य में हेतु को NA 96 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----