________________ न च 'नद्यास्तीरे गुडभृतशकटम्' इत्यादिशब्दात् प्रवृत्तस्य कदाचिद् वस्त्वप्राप्तेरवस्तुधर्मता तस्येत्याशङ्कनीयम्, प्रत्यक्षादिप्रमाणानामपि तत्प्रसङ्गात्- तेभ्योऽपि हि प्रवृत्तस्य कदाचिद् वस्त्वप्राप्तेः। अबाधितेभ्यस्तेभ्यः प्रवृत्तौ भवत्येवाऽर्थप्राप्तिरिति चेत्। तदेतदिहाऽपि समानम्, सुविवेचितादाप्तप्रणीतशब्दाद् वस्तुप्राप्तेरत्राऽप्यवश्यंभावित्वात्, इत्यादि बह्वत्र वक्तव्यम्, तत्तु नोच्यते, ग्रन्थगहनताप्रसङ्गात्, अन्यत्रोक्तत्वाच्च // इति गाथार्थः॥११॥ अनैकान्तिक दोषयुक्त होने का आरोप लगाया जा सकता है, क्योंकि वे नामरहित को वस्तु मानते हैं। जैनों का कथन है कि उक्त दोष कथमपि नहीं है। क्योंकि नामरहित पदार्थ तो 'अवस्तु' सिद्ध हो गया, वह स्वतः असद्भूत है तो उसमें 'वस्तु-प्रतीतिहेतुता' हेतु भी कैसे रहेगा? अतः उक्त अनुमान-वाक्य अनैकान्तिक-दोष से रहित है।] यदि अवस्तु में भी वस्तु-प्रतीति हेतुता का होना मानें तो वह अवस्तु भी उसी तरह 'वस्तु' ही सिद्ध होगी, जिस तरह स्वप्रतीतिजनक होने से घट आदि। इसी तरह 'विरुद्ध' दोष भी संभव नहीं है, क्योंकि विपक्ष में ही वृत्ति (सद्भाव) (-इस विरुद्ध दोष) का अभाव है। [तात्पर्य यह है कि जो हेतु विपक्ष में ही रहे, सपक्ष आदि में न रहे, वहां विरुद्ध दोष होता है। जब विपक्ष ही असद्भूत-अवस्तु है, तो वहां किसी हेतु का सद्भाव भी कैसे सिद्ध किया जाएगा?] (यहां पुनः कोई शंका कर रहा है कि) 'नदी के तीर पर गुड़ से भरा शकट (छकड़ा-गाड़ी) है' इत्यादि शब्द (के श्रवण) से प्रवृत्त किसी व्यक्ति को कभी (गुड़ से भरे शकट) वस्तु की प्राप्ति नहीं भी होती देखी जाती है, ऐसी स्थिति में उस वाक्य में या नाम-समूह में 'वस्तुधर्मता' का अभाव ही हुआ, अतः हेतु व साध्य की व्याप्ति में दोष उपस्थित हो जाता है। (उत्तर-) उक्त आशंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि इस तरह की विसंगति तो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों में भी देखी जाती है. क्योंकि (भ्रान्तिवश) कभी-कभी चांदी समझकर लोग प्रवृत्त होते हैं, किन्तु वहां चांदी नहीं, शुक्ति उपलब्ध होती है। (पुनः शंकाकार-) उक्त स्थिति तो- पूर्व ज्ञान के बाधित होने से घटित होती है, किन्तु अबाधित प्रमाणों में उक्त विसंगति नहीं होती। (शंकाकार-) तो अबाधित प्रमाण की स्थिति में तो यथाप्रतीत वस्तु की उपलब्धि होती ही है। (उत्तर-) तो उक्त समाधान की तरह ही यहां भी वही समाधान कर लेना चाहिए। [अर्थात् किसी के द्वारा हंसी-मजाक में, या रागद्वेषादिवश यह कह दिया गया कि जाओ, देखो, नदी-तीर पर गुड़ से भरी गाड़ी है, किन्तु यह सुनकर जब कुछ लोग लोभ-वश जाते हैं तो गुड़ से भरी गाड़ी नहीं मिलती, यह पूर्वज्ञान के बाधित होने की प्रतीति का उदाहरण है। यहां भले ही वस्तुधर्मता का अभाव दृष्टिगोचर हो रहा है, तथापि जहां बाधित ज्ञान/प्रतीति नहीं है, वहां तो संकेतित वस्तु की प्राप्ति होती ही है।] सुविवेकयुक्त आप्त (रागद्वेषरहित, मध्यस्थ) व्यक्ति द्वारा प्रणीत (उच्चारित) शब्द से तो संकेतित वस्तु की प्राप्ति अवश्यंभाविनी है, इत्यादि बहुत कुछ कहना (बाकी) है, किन्तु ग्रन्थगहनता (ग्रन्थविस्तार की अधिकता) हो जाएगी, और अन्यत्र इस सम्बन्ध में कहा भी गया है, इसीलिए (और अधिक) नहीं कह रहे हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 61 // ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 97