________________ [संस्कृतच्छाया:- भावस्य कारणं यथा द्रव्यं भावश्च तस्य पर्यायः। उपयोगपरिणतिमयो न तथा नाम न वा स्थापना // ] यथाऽनुपयुक्तवत्कृप्रभृतिकं साधुद्रव्येन्द्रादिकं वा द्रव्यं भावस्योपयोगरूपस्य भावेन्द्रपरिणतिरूपस्य वा यथासंख्येन कारणं निमित्तं भवति, यथा च 'उवओग-परिणइमओत्ति', उपयोगमयो भावेन्द्रपरिणतिमयश्च भावो यथासंख्येन तस्याऽनुपयुक्तवक्तप्रभृतिकस्य साधुद्रव्येन्द्रादिकस्य वा द्रव्यस्य पर्यायो.धर्मो भवति, न तथा नाम, नाऽपि स्थापनेति। इदमुक्तं भवति- यथाऽनुपयुक्तो वक्ता द्रव्यं कदाचिदुपयुक्तत्वकाले तस्योपयोगलक्षणस्य भावस्य कारणं भवति, सोऽपि वोपयोगलक्षणो भावस्तस्याऽनुपयुक्तवक्तरूपस्य द्रव्यस्य पर्यायो भवति, यथा वा साधुजीवो द्रव्येन्द्रः सन् भावेन्द्ररूपाया: परिणते: कारणं भवति, सोऽपि वा भावेन्द्रपरिणतिरूपो भावस्तस्य साधुजीवद्रव्येन्द्रस्य पर्यायो भवति, न तथा नाम-स्थापने। अतस्ताभ्यां द्रव्यस्य भेदः, नाम्नस्तु स्थापना-द्रव्याभ्यां भेदः सामर्थ्यादेवाऽवसीयत इति / तदेवं यद्यपि परप्रेरितप्रकारेण नाम-स्थापना-द्रव्याणामभेदः, तथाप्युक्तरूपेण प्रकारान्तरेण भेदः सिद्ध एव, न हि दुग्ध-तक्रादीनां श्वेतत्वादिनाऽभेदेऽपि माधुर्यादिनाऽपि न भेदः, अनन्तधर्माध्यासितत्वाद् वस्तुन इति भावः॥ इति गाथार्थः // 54 // [(गाथा-अर्थः) जिस प्रकार द्रव्य भाव का कारण है और उपयोग व परिणतिमय जो 'भाव' है, वह उस (द्रव्य) का (आगम व नोआगम-इन दोनों प्रकार से) पर्याय (धर्म) है, उस प्रकार की समानता (यानी भाव का कारण होना, या द्रव्य का पर्याय होना) नाम व स्थापना (निक्षेप) में नहीं है] व्याख्याः- जिस प्रकार, उपयोगशून्य वक्ता आदि, (कालान्तर में) उपयोग रूप भाव का तथा द्रव्य इन्द्र रूप साधु द्रव्य भावइन्द्र-परिणति का कारण या निमित्त होता है, और जिस प्रकार उक्त उपयोगमय व भाव-इन्द्रपरिणतिरूप जो भाव है, वह क्रम से (कालान्तर में) उस उपयोगशून्य वक्ता आदि का तथा द्रव्य इन्द्र रूप साधु द्रव्य का पर्याय यानी धर्म होता है, वैसी स्थिति नाम व स्थापना में नहीं होती। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार उपयोग-रहित वक्ता रूपी द्रव्य (कालान्तर में) उपयोग रूप भाव का कारण बन (जाता या बन) सकता है और वह उपयोग रूप भाव भी उस उपयोगशून्य वक्ता रूप द्रव्य का पर्याय होता है, अथवा जिस प्रकार, (भविष्य में इन्द्र रूप से उत्पन्न होने की योग्यता वाले) साधु का जीव, जो द्रव्य-इन्द्र है, वह (कालान्तर में) भाव-इन्द्र रूप परिणति का कारण होता है और वह भाव-इन्द्र परिणतिरूप भाव भी द्रव्य-इन्द्र रूप साधु-जीव का पर्याय होता है। किन्तु उस प्रकार (का कारण-कार्य भाव) नाम व स्थापना में नहीं होता, (अर्थात् नाम व स्थापना- ये किसी जीव के कारण या कार्य नहीं होते), इसलिए नाम व स्थापना से द्रव्य का (तथा द्रव्य से स्थापना का) भेद या वैशिष्ट्य (स्वतः स्पष्ट) है। नाम (निक्षेप) का स्थापना व द्रव्य (निक्षेपों) से भेद तो सामर्थ्य से (स्वतः ही) सिद्ध है। (क्योंकि नाम में साकारता व कारणरूपता नहीं है)। इस प्रकार, यद्यपि शंकाकार द्वारा प्रस्तुत दृष्टि से नाम, स्थापना व द्रव्य में भले ही अभेद हो, तथापि उक्त प्रकारान्तर से भेद या वैशिष्ट्य सिद्ध ही हो जाता है। तात्पर्य यह है कि दुग्ध व तक्र (छाछ) आदि में श्वेतता (सफेदी) की दृष्टि से अभेद होने पर भी, माधुर्य आदि से भी भेद न हो -ऐसा नहीं होता, क्योंकि प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं (उसी प्रकार, नाम, स्थापना व द्रव्य में परस्पर भेद भी है)| यह गाथा का अर्थ पूर्ण हआ॥५४॥ VA 88 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------