________________ अथ तृतीयं मङ्गलद्वारमधिकृत्याऽऽह बहुविग्घाई सेयाइं तेण कयमंगलोवयारेहिं। घेत्तव्वो सो सुमहानिहिव्व जह वा महाविजा॥१२॥ [संस्कृतच्छाया:- बहुविघ्नानि श्रेयांसि तेन कृतमङ्गलोपचारैः / ग्रहीतव्यःस सुमहानिधिरिव यथा वा महाविद्या॥] 'श्रेयांसि बहुविनानि भवन्ति महतामपि' इति वचनाद् येन बहुविघ्नानि श्रेयांसि भवन्ति, तेन कारणेन परमश्रेयोरूपत्वात् कृतमङ्गलोपचारैरेव स आवश्यकानुयोगो ग्रहीतव्यः। किंवत्?, इत्याह-शोभनमहारत्नादिनिधिवद्, महाविद्यावद् वा // इति गाथार्थः // 12 // क्व पुनस्तन्मङ्गलं शास्त्रस्येष्यते?, इत्याह तं मंगलमाईए मझे पजन्तए य सत्थस्स। पढमं सत्थत्थाऽविग्धपारगमणाय निहिट्ठ॥१३॥ (मङ्गलद्वार कथन) अब तृतीय मङ्गलद्वार का कथन कर रहे हैं (12) बहुविग्घाई सेयाइं तेण कयमङ्गलोवयारेहिं / घेत्तव्यो सो सुमहानिहिल जह वा महाविज्जा // [(गाथा-अर्थः) श्रेयस्कर कार्यों में बहुत-से विघ्न आते हैं, इसलिए उक्त (आवश्यक-अनुयोग) को मङ्गलाचरण करने के बाद ही उसी प्रकार ग्रहण करना चाहिए जिस प्रकार किसी महान् निधि को या महाविद्या को ग्रहण किया जाता है।] व्याख्याः- 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि' (अर्थात् श्रेयस्कर कार्यों में बड़े लोगों के समक्ष भी बहुत-से विध्न आ जाया करते हैं) इस कथन के अनुसार, चूंकि श्रेयस्कर कार्यों में विघ्नबहुलता होती है, इस कारण से परमश्रेयःस्वरूप इस 'आवश्यक अनुयोग' को मांगलिक औपचारिक क्रिया करके ही ग्रहण करना चाहिए। (प्रश्न-) किस प्रकार? अतः (उत्तर में) कहा- किसी सुन्दर महारत्नादि निधि की तरह, अथवा महाविद्या की तरह (अर्थात् जैसे किसी महानिधि या महाविद्या को ग्रहण करने से पूर्व मङ्गलाचरण करना अपेक्षित होता है, वैसे ही आवश्यक अनुयोग का ग्रहण करने से पूर्व मङ्गलाचरण करना अपेक्षित है)। यह गाथा का अर्थ हुआ // 12 // (तीन मङ्गल) शास्त्र में मङ्गल कहां करना? इस प्रश्न के उत्तर में शास्त्रकार कह रहे हैं (13) तं मङ्गलमाईए मज्झे पज्जन्तए य सत्थस्स / पढमं सत्थत्थाऽविग्घपारगमणाय निद्दिढें // Ma 36 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------