________________ शब्द-समभिरूद्वैवंभूतास्तु विशुद्धनयत्वादागमतो द्रव्यमङ्गलं नेच्छन्त्येव, कस्मात्?, इत्याह जाणं नाणुवउत्तोऽणुवउत्तो वा न याणइ जम्हा। जाणंतोऽणुवउत्तोत्ति बिंति सद्दादयोऽवत्थु // 42 // [संस्कृतच्छाया:- जानन् वाऽनुपयुक्तः अनुपयुक्तो वा न जानाति यस्मात् / जाननुपयुक्त इति ब्रुवते शब्दादयोऽवस्तु॥] जम्हा इति यस्मात् जानन्नवबुध्यमानो 'मङ्गलं' इति गम्यते, नानुपयुक्तो न तज्ज्ञानोपयोगशून्यो भवति, ज्ञायकस्य ज्ञानोपयोगेनान्तरीयकत्वात्। अनुपयुक्तो वा तत्र न तज्जानीते न तस्य ज्ञायकोऽसौ व्यपदिश्यते, अज्ञायकत्वाभिमतवत्, काष्ठादिवद् वेत्यर्थः। तस्माज्जानन्ननुपयुक्तश्चेत्येतदप्यवस्तु असदभाव इति यावत्, एतद् ब्रुवते शब्दादयः शब्द-समभिरूद्वैवंभूतनयाः॥ इति गाथार्थः॥४२॥ शब्द, समभिरूढ़ व एवम्भूत नय तो विशुद्ध नय होने से 'आगम से द्रव्यमङ्गल' को चाहते ही नहीं हैं (उसे विषय नहीं बनाते)। ऐसा क्यों? इस (प्रश्न के समाधान के) लिए कहा (42) जाणं नाणुवउत्तोऽणुवउत्तो वा न याणइ जम्हा। जाणंतोऽणुवउत्तो त्ति बिंति सद्दादयोऽवत्थु // [(गाथा-अर्थः)शब्द आदि नयों का, अर्थात् शब्द, समभिरूढ़ व एवम्भूत नय का कहना हैचूंकि जो (मङ्गल शब्द को) जानता है, किन्तु उपयोग-सहित नहीं है, और जो उपयोगिरहित है, वह (जानता है-ऐसा कहा नहीं जाता है, इसलिए वह) जानता नहीं है। इसलिए, जानता हुआ उपयोगरहित (जो भी है, वह) अवस्तु है।] व्याख्याः- जम्हा-चूंकि / (मङ्गल-शब्द-अर्थ) को जानता हुआ, उसका बोध प्राप्त करता हुआ ही, 'मङ्गल' इस रूप में जाना जाता है, किन्तु जो उपयोगरहित है, यानी (मङ्गल-सम्बन्धी) ज्ञानोपयोग से शून्य है, वह 'मङ्गल' नहीं कहा जाता / क्योंकि ज्ञानोपयोग होने से ही ज्ञायकता सम्पन्न होती है। अथवा उपयोगरहित होने से वह 'नहीं जानता है', अतः उसे 'ज्ञायक' के रूप में अभिहित नहीं किया जाता। यह उसी प्रकार है जैसे किसी अज्ञायक को या फिर (अचेतन) काष्ठ आदि को ज्ञायक नहीं कहा जाता- यह तात्पर्य है। इसलिए, जानता हुआ उपयोगरहित जो भी है, वह अवस्तु है, असत् है, उसकी सत्ता नहीं है- ऐसा शब्दादि नयों का, अर्थात् शब्द, समभिरूढ़ एवं एवम्भूत नय का, कहना है। यह गाथा का अर्थ हुआ॥४२॥ Na 72 --- विशेषावश्यक भाष्य --