________________ अथवा निपातनाद् मङ्गलमिति साध्यते। कथम्?, इत्याह-इष्टार्थप्रकृतिप्रत्ययतः, तत्रेष्टो विवक्षितोऽर्थो यासां ता इष्टार्थाः प्रकृतयः; तद्यथा-'मकि मण्डने', 'मन ज्ञाने', 'मदी हर्षे', 'मुद मोद-स्वप्न-गतिषु', 'मह पूजायाम्' इत्येवमादि; प्रत्ययस्त्वेतासां प्रकृतीनां सर्वत्र 'अलच्' एव विधीयते, ततो मङ्गलमिति रूपं निपात्यते। व्युत्पत्तिस्त्वेवम्-मक्यतेऽलंक्रियते शास्त्रमनेति मङ्गलम्, तथा मन्यते ज्ञायते निश्चीयते विघ्नाभावोऽनेन, तथा माद्यन्ति / हृष्यन्ति मुदमनुभवन्ति, मोदन्ते, शेरते विघ्नाभावेन निष्प्रकम्पतया सुप्ता इव जायन्ते, शास्त्रस्य पारं गच्छन्त्यनेनेति, तथा मह्यन्ते पूज्यन्तेऽनेनेति मङ्गलमिति। एवमादि व्याकरणशास्त्रे यद् यथा निपातनं सिद्धम्, तद् यथायोगं यथासंबन्धमत्र स्वधियाऽऽयोज्यं लक्षणज्ञैः॥ इति गाथार्थः॥ 23 // मं गालयइ भवाओ मंगलमिहेवमाइ नेरुत्ता। भासंति सत्थवसओ नामाइ चउव्विहं तं च॥२४॥ [संस्कृतच्छाया:- मां गालयति भवात् मङ्गलमिहैवमादि नैरुक्ताः। भाषन्ते शास्त्रवशतो नामादि चतुर्विधं तच्च // ]. व्याख्याः- अथवा 'मङ्गल' शब्द (को 'निपात' मान कर उस) की सिद्धि निपातन से (भी) होती है। (प्रश्न-) कैसे होती है? (उत्तर-) अभीष्ट अर्थ वाली प्रकृति से अभीष्ट प्रत्यय करके / जिस अर्थ की विवक्षा (कथन-इच्छा) हो, वह अभीष्ट अर्थ होता है, उससे युक्त प्रकृति 'इष्टार्थप्रकृति' है। जैसे, मंडन अर्थ वाली 'मगि', हर्ष अर्थ वाली 'मदि', प्रमोद, स्वप्न व गति अर्थों वाली 'मुद्', पूजा-अर्थ वाली 'मह' इत्यादि धातुरूप प्रकृतियां (इष्टार्थप्रकृति के रूप में ग्राह्य) हैं। इन प्रकृतियों से 'अलच्' प्रत्यय करते हुए 'निपातन' (व्याकरण प्रक्रिया-विशेष) से 'मङ्गल' शब्द की निष्पत्ति हो (सक) ती है। व्युत्पत्ति तो इसकी इस प्रकार है- जिससे शास्त्र का मंडन या अलंकरण हो, वह 'मङ्गल' है। जिससे निर्विघ्नता का मनन, ज्ञान या निश्चय (दृढ़ विश्वास) हो, जिससे लोग मत्त-प्रमुदित अर्थात् हर्षित हों, या शयन करें- अर्थात् निर्विघ्नता होने से अविचलित (तनावरहित) होकर सुप्त (=निश्चिन्त होकर विश्राम कर रहे) व्यक्ति की तरह हो जाएं, जिससे शास्त्र (के अन्त) का पार पाया जाता हो (=निर्विघ्न समाप्ति होती हो), तथा जिसके कारण (शास्त्र व अध्येता) महित-पूजित व प्रतिष्ठित होंवह 'मङ्गल' है। इसी तरह, व्याकरण-शास्त्र में जैसा जो निपातन सिद्ध (किया जाना सम्भव) हो, उसे यथोचित रूप में, सम्बन्ध (अर्थसंगति) के अनुरूप, अपनी बुद्धि से, लाक्षणिकों (शाब्दिक नियुक्ति के वेत्ताओं) द्वारा यहां आयोजना कर लेनी चाहिए | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 23 // (24) मं गालयइ भवाओ, मङ्गलमिहेवमाइ नेरुत्ता। भासंति सत्यवसओ, नामाइ चउव्विहं तं च // [(गाथा-अर्थः) जो 'मा' (यानी पाप) से गलन कराये अर्थात् (पापरूप) संसार से दूर करायेवह 'मङ्गल' है। इत्यादि रूप से निरुक्तवादियों (वैयाकरणों) ने शास्त्रानुरूप अनेक नियुक्तियों का कथन (निर्वचन) किया है। वह 'मङ्गल' नाम (स्थापना. द्रव्य व भाव) इत्यादि रूपों से चार प्रकार का है।] a 48 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------