________________ इत्याह- तदर्थशून्यं स चाऽसावर्थश्च तदर्थः सद्भूतेन्द्रलक्षणस्तेन शून्यं तदर्थशून्यम् / पुनरपि कथंभूतम्?, तादृशाकारं सद्भूतेन्द्रसमानाकारम्, वाशब्दस्य भिन्नक्रमत्वाद् निराकारं वा सद्भूतेन्द्राकारशून्यमित्यर्थः, चित्र-लेप्य-काष्ठ-पाषाणादिषु तादृशाकारं भवति, अक्षादिषु तु निराकारमित्यर्थः। पुनः किंभूतम्?, इत्वरम्- अल्पकालीनम्, इतरद्वा यावत्कथिकम्। तत्रेत्वरं चित्राक्षादिगतम्, यावत्कथिकं तु नन्दीश्वरचैत्यप्रतिमादि, तदपि हि ‘तिष्ठतीति स्थापना' इति स्थापनात्वेन समय निर्दिष्टमेव। तदिदमिह तात्पर्यम्- यद् वस्तु सद्भूतेन्द्रार्थशून्यं सत् तबुद्ध्या तादृशाकारं निराकारं वा, स्तोककालं यावत्कथिकं वा स्थाप्यते सा स्थापनेति / प्रकृते योजना वित्थं क्रियते-चित्रकर्मादिगतः परममुनिः स्थापनं स्थापना तया मङ्गलम्, स्थाप्यत इति वा स्थापना, तया मङ्गलं स्थापनामङ्गलमिति व्यपदिश्यते // इति गाथार्थः॥२६॥ अथ भाष्यकारः स्वयमेव नाम-स्थापनामङ्गलयोरुदाहरणमुपदर्शयन्नाह इसमें उस सद्भूत इन्द्र का ही अभिप्राय यानी अध्यवसाय (आरोप) किया जाता है। (प्रश्न-) (जिसमें यह अध्यवसाय (आरोप) किया जाता है) वह वस्तु कैसी होती है? कह रहे हैं (उत्तर-) वह जो (स्थापित किये जाने वाला) सद्भूत 'इन्द्र' आदि अर्थ है, उस अर्थ से शून्य होती है। (प्रश्न-) और भी वह कैसी होती है? (उत्तर-) वह उस (अर्थ) के आकार को लिए हुए (भी) होती है। 'वा' शब्द क्रम की भिन्नता (पूर्वोक्त तदाकारता से भिन्न अतदाकारता) को इंगित करता है, अतः वह साकार से विपरीत 'निराकार' (तादृशाकारशून्य) अर्थात् सद्भूत इन्द्र आदि के आकार से रहित (भी) होती है। चित्र, लेप्य, काष्ठ व पत्थर आदि में तो (स्थापनीय) वस्तु के समान रूप आकार वाली (तादृश-आकार) होती है, किन्तु कोड़ियों आदि में 'इत्वर' (अल्पकालिक) स्थापना होती है और नन्दीश्वर चैत्य प्रतिमा आदि में शाश्वत होती है, क्योंकि (उन प्रतिमाओं को भी) 'जो स्थित रहती हैं, वह स्थापना' -इस दृष्टि से आगम में स्थापना-रूप से निर्दिष्ट किया गया है। ___तब, यहां (निष्कर्ष रूप) तात्पर्य यह हुआ कि जो वस्तु सद्भूत इन्द्र आदि अर्थ से शून्य होती हुई, उस (अर्थ-) के जैसे आकार वाली, या निराकार (तदाकारशून्य), कुछ समय के लिए या हमेशा के लिए (उस अर्थ के रूप में) प्रतिष्ठित की जाती है, वह 'स्थापना' है। प्रकृत (प्रस्तुत) प्रसंग में इसकी योजना इस प्रकार की जाती है- चित्रकर्म में स्थित परममुनि, चूंकि वहां परम मुनि की स्थापना (आरोपित मान्यता) की जाती है, या फिर परम मुनि के रूप में वह चित्र (चित्रात्मक होते हुए भी मुनि के रूप में) स्थापित है, इसलिए वह 'स्थापना-मङ्गल' है- ऐसा कहा जाता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 26 // - अब भाष्यकार स्वयं ही 'नाम मङ्गल' व 'स्थापना मङ्गल'-इन दोनों के उदाहरणों को प्रदर्शित करने हेतु (अग्रिम गाथा) कह रहे हैं ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 53