________________ वक्ष्यमाणशब्दार्थस्य नैगमनयस्य मतेनैकोऽनुपयुक्तो मङ्गलशब्दार्थप्ररूपक एकं द्रव्यमङ्गलम्, अनेके त्वनुपयुक्तास्तत्प्ररूपका अनेकानि द्रव्यमङ्गलानि। अयं हि नयः सामान्यं विशेषांश्चाऽभ्युपगच्छत्येव, तत्र विशेषवादित्वपक्षे एकोऽनुपयुक्त एकं द्रव्यमङ्गलम्, अनेके त्वनुपयुक्ता अनेकानि द्रव्यमङ्गलानीत्युपपद्यत एव, विशेषाणां पृथग्भिन्नत्वादिति। संग्रहनयस्य तु वक्ष्यमाणस्वरूपस्य केवलसामान्यवादिनो मतेन सर्वस्मिन्नपि लोके एकमेव द्रव्यमङ्गलम्, सर्वेषां द्रव्यमङ्गलत्वसामान्यादव्यतिरिक्तत्वात्, व्यतिरेके चाऽद्रव्यमङ्गलत्वप्राप्तेः, सामान्यस्य च त्रिभुवनेऽप्येकत्वात् // इति गाथार्थः॥३१॥ एतदेवाह एक्कं निच्चं निरवयवमक्कियं सव्वगं च सामन्नं / निस्सामन्नत्ताओ नत्थि विसेसो खपुष्कं व॥३२॥ [संस्कृतच्छाया:- एकं नित्यं निरवयवमक्रियं सर्वगं च सामान्यम्। निःसामान्यत्वाद् नास्ति विशेषः खपुष्पमिव // ] . एकमद्वितीयत्वादेकसंख्योपेतं सामान्यम्। एकमपि क्षणिकं स्यात्, तत्राह-नित्यमनपायि। नित्यमप्याकाशवत् साबयवं स्यात्, तन्निरवयवत्वे सवितुरुदयाऽस्तमनाऽयोगात्, इत्यत्राह-निरवयवमनंशं, पूर्वापरकोटिशून्यत्वादिति / निरवयवमपि परमाणुवत् व्याख्याः - नैगम नय के शब्दार्थ का निरूपण आगे करने वाले हैं, उनकी संमति में (या अपेक्षा से यदि) उपयोगरहित व मङ्गलशब्दार्थ का प्ररूपक (वक्ता) एक हो तो द्रव्यमङ्गल एक है। यदि उसके अनेक अनुपयुक्त प्ररूपक (वक्ता) हैं तो द्रव्यमङ्गल अनेक होते हैं। यह (नैगम) नय सामान्य व विशेष- दोनों को ही (पृथक्-पृथक्) स्वीकार करता है। यहां विशेषवादी पक्ष में, चूंकि सभी विशेष पृथक्-पृथक् भिन्नता लिए होते हैं, अतः एक अनुपयुक्त (उपयोगरहित वक्ता) के होने पर एक द्रव्यमङ्गल, और अनेक अनुपयुक्त (उपयोगरहित वक्ता) के होने पर अनेक द्रव्यमङ्गल हैं- यह (कहना) युक्तियुक्त ही है। किन्तु संग्रहनय, जिसका स्वरूप आगे कहेंगें, मात्र सामान्यवादी है। उसके मत में समस्त लोक में एक ही द्रव्यमङ्गल है। चूंकि त्रिभुवन में 'सामान्य' एक है, इसलिए द्रव्यमङ्गल 'सामान्य' से अव्यतिरिक्त (अ-पृथक्) नहीं है, (इसलिए वह भी एक ही है)। यदि (इन दोनों में) व्यतिरेक (पार्थक्य) मानें तो द्रव्यमङ्गलत्व ही नहीं रहेगा |यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 31 // भाष्यकार पूर्वोक्त (व्याख्यागत तथ्य) को ही आगे कह रहे हैं (32) एक्कं निच्चं निरवयवमक्कियं सव्वगं च सामन्नं / निस्सामन्नत्ताओ नत्थि विसेसो खपुष्पं व // [(गाथा-अर्थः) 'सामान्य' एक, नित्य, निरवयव, अक्रिय, सर्वगत होता है, और 'सामान्य' के बिना 'विशेष' 'आकाशपुष्प' की तरह अस्तित्वहीन है।] व्याख्याः - वह 'सामान्य' एक है। चूंकि वह अद्वितीय है, अतः 'सामान्य' एक संख्या वाला ही है। एक होते हुए भी कहीं वह क्षणिक हो सकता है- इस (सम्भावना को नकारने के) लिए कहानित्यमनपायि। (अर्थात् वह नित्य व अविनश्वर-शाश्वत है।) नित्य होते हुए भी कहीं वह आकाश की Na 60 --- / -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------