________________ [संस्कृतच्छाया:- तयोस्तुल्यमतत्वे को नु विशेषोऽभिधानतोऽन्यः? तुल्यत्वेऽपीह नैगमस्य वस्त्वन्तरे भेदः॥] / तयोगमव्यवहारयोस्तुल्यमतत्वे उक्तन्यायेन विशेषवादितया सदृशाभिप्रायत्वे सति 'णु' वितर्के, अभिधानं नाम ततोऽन्यस्तद् वर्जयित्वाऽपरः को विशेष:? न कश्चिदित्यर्थः। एको नैगमः, अपरस्तु व्यवहार इत्येवमनयो मैव भिद्यते न त्वभिप्राय इति भावः। आचार्य आह- 'तुल्लत्ते' इत्यादि, इह विशेषाऽभ्युपगमे यद्यपि नैगमस्य व्यवहारेण सह तुल्यत्वं सदृशाभिप्रायत्वम्, तथापि तस्मिन् सत्यपि वस्त्वन्तरे सामान्यादिके भेदो नानात्वमस्त्येव // इति गाथार्थः // 38 // अथवा नैगमव्यवहारयोरनेन तुल्यमतत्वाऽऽख्यापनेन सामान्यविशेषग्राहकस्य नैगमस्य संग्रहव्यवहारनयद्वयेऽन्तर्भावः सूचितो द्रष्टव्य इति दर्शयन्नाह जो सामण्णग्गाही स नेगमो संगहं गओ अहवा। इयरो ववहारमिओ जो तेण समाणनिहेसो॥३९॥ [(गाथा-अर्थः) (प्रश्नः) यदि (नैगम व व्यवहार-इन) दोनों नयों का तुल्य (एक जैसा) अभिप्राय है, तो इन दोनों में नाम-भेद के सिवा क्या कोई अन्य अन्तर है? (उत्तर-) यद्यपि नैगम नय व्यवहार नय के समान (ही विशेषग्राही) है, तथापि 'अन्य वस्तु' (सामान्य को विशेष से अन्य वस्तु मानने के विषय) में, उसका (व्यवहार नय से) भेद है।] ____ व्याख्याः - नैगम व व्यवहार नय (-ये दोनों) तुल्य मत वाले हैं, अर्थात् विशेषवादी के रूप में दोनों का एक जैसा अभिप्राय (दृष्टिकोण) है। 'नु' यह वितर्क (सन्देह) का वाचक है अर्थात् यहां सन्देह प्रस्तुत किया गया है कि जब दोनों नय तुल्य अभिप्राय वाले हैं तो फिर अभिधान यानी नाम (-संबन्धी) भेद को छोड़कर क्या कोई दूसरा अन्तर भी है? अर्थात् कोई अन्तर नहीं है- यह तात्पर्य है। एक (का नाम) नैगम है तो दूसरा 'व्यवहार' नाम वाला है, इस प्रकार नामों में ही भिन्नता है, अभिप्राय तो दोनों का एक ही है- यह भाव है। (उक्त कथन में संशोधन-हेतु) आचार्य कह रहे हैंतुल्यत्वेऽपि / अर्थात् विशेष का ही अस्तित्व स्वीकार करने में यद्यपि नैगम की व्यवहार नय से समानता है और दोनों का एक जैसा अभिप्राय (दृष्टिकोण) है, तथापि (अन्तर यह है कि) नैगम नय को भी वस्त से पथक मानता है. इसलिए इन दोनों में भेद या नानात्व है ही। (अर्थात नैगम नय सामान्य व विशेष-दोनों का ग्रहण करता है, और व्यवहार नय मात्र विशेष का, साथ ही वह कुछ स्थानों में सामान्य को 'वस्त्वन्तर' (पृथक् वस्तु) मानता है, जब कि व्यवहार नय ऐसा नहीं) // यह गाथा का अर्थ हुआ // 38 // ___ अथवा नैगम व व्यवहार- इन दोनों को तुल्यमत घोषित करते हुए यह सूचित किया गया है कि सामान्य-विशेष-उभय ग्राहक जो नैगम नय है, वह संग्रह-व्यवहार इन दोनों में अन्तर्भूत हो जाता है। इसी तथ्य के निरूपण हेतु (भाष्यकार प्रस्तुत गाथा) कह रहे हैं (39) जो सामण्णग्गाही स नेगमो संगहं गओ अहवा। इयरो ववहारमिओ जो तेण समाणनिद्देसो // a 68 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- -----