________________ (शिष्यहितावृत्ति) इह चरणकरणक्रियाकलापतरुमूलकल्पं सामायिकादिषडध्ययनात्मकश्रुतस्कन्धरूपमावश्यकं तावदर्थतस्तीर्थकरैः, सूत्रतस्तु गणधरैर्विरचितम् / अस्य चातीवगम्भीरार्थतां सकलसाधु-श्रावकवर्गस्य नित्योपयोगितां च विज्ञाय चतुर्दशपूर्वधरेण श्रीमद्भद्रबाहुस्वामिनैतद्व्याख्यानरूपा "आभिणिबोहिअनाणं सुयनाणं चेव ओहिनाणंच" इत्यादिप्रसिद्धग्रन्थरूपा नियुक्तिः कृता। तन्मध्ये च सामायिकाध्ययननियुक्तिं विशेषत एवातिबहु विचारदुर्विज्ञेयार्थामतिशयोपकारिणी चावगम्य के वलामृतरसस्यन्दिवाविलासैः श्रीमज्जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यैस्तदर्थव्याख्याऽऽत्मकमेव ‘कयपवयणप्पणामो' इत्यादिगाथासमूहस्वरूपं भाष्यमकारि। तस्य च यद्यपि श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यैः, श्रीकोट्याचार्यश्च वृत्तिर्विहिता वर्तते, तथाऽप्यतिगम्भीरवाक्यात्मकत्वात्, किञ्चित्संक्षेपरूपत्वाच्च दुःषमानुभावतः प्रज्ञादिभिरपचीयमानानां किमपिविस्तराभिधानरुचीनां शिष्याणां नाऽसौ तथाविधोपकारं सांप्रतमाधातुं क्षमा; इति विचिन्त्य मुत्कलतरवाक्यप्रबन्धरूपा किमपिविस्तरवती च मन्दमतिनाऽपि मया मन्दतममति-शिष्यावबोधार्थं, श्रुताभ्याससंपादनार्थं च वृत्तिरियमारभ्यते। यस्याः प्रसादपरिवर्धितशुद्धबोधाः, पारं व्रजन्ति सुधियः श्रुततोयराशेः।। सानुग्रहा मयि समीहितसिद्धयेऽस्तु, सर्वज्ञशासनरता श्रुतदेवताऽसौ // 4 // जिसके प्रसाद से विशुद्ध ज्ञान से सम्पन्न होकर सुधी-जन श्रुत-समुद्र के पार पहुंच जाते हैं, सर्वज्ञदेव के शासन में निरत वह श्रुतदेवी (सरस्वती) मेरे मनोरथ की सिद्धि के लिए मुझ पर अनुग्रह करने वाली हो |4|| (शिष्यहितावृत्ति का अनुवाद) आवश्यक सूत्र की रचना अर्थरूप से तीर्थंकर भगवान् द्वारा तथा शब्द रूप से गणधरों द्वारा की गई है। यह एक वृक्ष के समान है जिसकी मूल जड़ें हैं- चरणसत्तरी व करणसत्तरी रूप क्रियासमूह / सामायिक आदि छः अध्ययन उस वृक्ष के तने (स्कन्ध) हैं। इसे अतिगम्भीर अर्थ से परिपूर्ण तथा समस्त साधुओं व श्रावकों के लिए उपयोगी समझ कर, इस सूत्र पर चतुर्दश पूर्वधर श्रीमान् भद्रबाहु स्वामी ने 'आभिनिबोहिअ-नाणं सुयनाणं चेव ओहिनाणं. च' (79वीं गाथा) इत्यादि प्रसिद्ध ग्रन्थ के रूप में नियुक्ति' नामक व्याख्या की रचना की है। उनमें से (प्रथम) 'सामायिक' अध्ययन की नियुक्तियों के अर्थ अत्यन्त (सूक्ष्म) विचारणा से ही बोधगम्य हो सकते हैं- और यह (अपेक्षाकृत) अधिक उपकारी है- ऐसा जान कर अपने अमृततुल्य मधुर वचनों से आचार्य श्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने इस (सामायिक अध्ययन-नियुक्ति-ग्रन्थ) पर अर्थव्याख्यान-स्वरूप 'कयपवयणप्पणामो' इत्यादि गाथा-समूह रूप (प्राकृत पद्यात्मक) भाष्य की रचना की। उक्त भाष्य पर यद्यपि आचार्य श्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण महाराज ने स्वयं तथा उनके। बाद श्री कोट्याचार्य ने वृत्ति (लघुवृत्ति, व्याख्या) की रचना की, परन्तु वह टीका अतिगम्भीर अर्थ वाली एवं कुछ संक्षिप्त भी है, दुःषमा (पंचम काल) के प्रभाववश बुद्धि आदि से हीनता प्राप्त करते जा ---- विशेषावश्यक भाष्य