________________ बलभावनायां बलं द्विविधम्- शारीरम्, मानसधृतिबलं च / तत्र शारीरमपि बलं जिनकल्पाहस्य शेषजनातिशायिकमेष्टव्यम्, तपःप्रभृतिभिस्त्वपकृष्यमाणस्य यद्यपि शारीरं बलं तथाविधं न भवति, तथापि धृतिबलेनाऽऽत्मा तथा भावयितव्यो यथा महद्भिरपि परीषहोसगैर्न बाध्यते। एताभिः पञ्चभिर्भावनाभिर्भाविताऽऽत्मा जिनकल्पिकप्रतिरूपो गच्छेऽपि प्रतिवसन्नाहारादि परिकर्म प्रथममेव करोति, तबाहारे तृतीयपौरुष्यामवगाढायां वल्ल-चणकादिकमन्तं प्रान्तं रूक्षं च संसट्ठमसंसट्ठा उद्धड तह होइ अप्पलेवा य। उग्गिहिआ पग्गहिआ उज्झिअधम्मा य सत्तमिया॥ [संसृष्टासंसृष्टे उद्धृता तथा भवत्यल्पलेपा च / उद्गृहीता प्रगृहीता उज्झितधर्मा च सप्तमी॥] एतासां सप्तानां पिण्डैषणानां मध्ये आद्यद्वयवर्जं शेषपञ्चानां मध्यादन्यतरैषणाद्वयाभिग्रहेणाऽऽहारं गृह्णाति- एकया भक्तम्, अपरया त्वेषणया पानकमिति। एवमाद्यागमोक्तविधिना गच्छान्तर्गतः पूर्वमेवाऽऽत्मानं परिकर्म्य ततो जिनकल्पं प्रतिपित्सुः सङ्गं मीलयति, तदभावे स्वगणं तावदवश्यमाह्वयते। ततस्तीर्थकरसमीपे, तदभावे गणधरसंनिधाने, तदसत्त्वे चतुर्दशपूर्वधरान्तिके, तदसंभवे दशपूर्वधराभ्यर्णे, तदलाभे तु वटाऽश्वत्थाऽशोकवृक्षादीनामासत्तौ जिनकल्पमभ्युपगच्छति। निजपदव्यवस्थापितं सूरिम्, सबालवृद्धं गच्छम्, विशेषतः पूर्वविरुद्धांश्च क्षमयति, तद्यथा .. बल-सम्बन्धी भावना के प्रसंग में ज्ञातव्य है कि बल दो प्रकार का होता है- शारीरिक और मानसिक धैर्य-बल। इन (दोनों) में, 'जिनकल्प' स्वीकार करने वाले के लिए अन्य व्यक्तियों की तुलना में शारीरिक बल अधिक होना चाहिए। इसी प्रकार, तप आदि से (शारीरिक) कृशता होने पर, यद्यपि शारीरिक बल पहले जैसा नहीं रहता, तो भी धैर्य-बल से आत्मा को इस प्रकार भावित करना चाहिए कि बड़े से बडे परीषहों व उपसर्गों के होने पर भी कोई बाधा नहीं हो। इन पांच (प्रशस्त) भावनाओं के माध्यम से भावित होने वाली आत्मा 'जिनकल्प' की प्रतिमूर्ति होती है। ऐसे साधक गच्छ में रहते हुए भी, सर्वप्रथम आहारादि-सम्बन्धी परिकर्म करता है, जब तीसरी पौरुषी पूर्ण होने को होती है, तब नीरस, रूखे-सूखे बाल चने आदि (आहार में) ग्रहण करता है। (कहा भी गया है-) संसृष्टा, असंसृष्टा, उद्धृता, अल्पलेपा, उद्गृहीता, प्रगृहीता व उज्झितधर्मा -ये सात पिण्डैषणाएं होती हैं। ____ इन सात पिण्डैषणाओं में से पहली दो को छोड़ कर शेष पांच पिण्डैषणाओं में किन्हीं दो एषणाओं को स्वीकार कर वह आहार-पानी लेता है- एक एषणा से आहार, और दूसरी से पानी / इस प्रकार. आगमोक्त विधि से, गच्छ में रहते हए. पहले आत्मा को भावित करता है और तदनन्तर, जिनकल्प को स्वीकार करने का इच्छुक साधक संघ को एकत्रित करता है, संघ के अभाव में स्वयं के गच्छ को तो अवश्य बुलाता ही है। उसके बाद, तीर्थंकर के पास, वे न मिलें तो गणधर के पास, उनके अभाव में चतुर्दशपूर्वधर के पास, वे भी न हों तो दशपूर्वधर के पास, या फिर उनके अभाव में वट, अश्वत्थ (पीपल), अशोक वृक्ष आदि की सन्निधि में 'जिनकल्प' को स्वीकार करता है। अपने पद पर प्रतिष्ठित किये गये सूरि (आचार्य) से, गच्छ के आबालवृद्ध साधुओं से और विशेषकर पूर्व में जिनसे विरोध रहा हो, उनसे इस प्रकार क्षमा मांगता हैV----------- विशेषावश्यक भाष्य --- ---- 25