________________ नन्वित्थं तर्हि आवश्यकात् सम्यग्ज्ञान-क्रियाप्राप्तिः, ताभ्यां च मोक्षलक्षणफलसिद्धिः, इत्येवमावश्यकस्यैव पारम्पर्येण मोक्षात्मकं फलं स्यात्, न पुनस्तदनुयोगस्य, फलचिन्ता त्वस्यैवेह प्रस्तुता, इति चेत् / सत्यम्, किन्त्वावश्यकं व्याख्येयम्, तद्व्याख्यानं चानुयोगः, व्याख्याने च व्याख्येयगत एव सर्वोऽभिप्रायः प्रकटीक्रियते, अतो व्याख्येयस्य यत्फलम्, व्याख्यानस्य च सुतरामवसेयम्, तयोरेकाभिप्रायत्वात् / तस्माद् मोक्षलक्षणं फलमभिवाञ्छताऽऽवश्यकानुयोगेऽवश्यं प्रवर्तितव्यमेव, ततोऽपि ज्ञान-क्रियाप्राप्तेः, ताभ्यां च मोक्षफलसिद्धिरिति॥ यदि नामावश्यकानुयोगतो ज्ञान-क्रियाऽवाप्तिः, ताभ्यां च मोक्षसिद्धिः, तथापि किमिति तत्र प्रवर्तितव्यम्, न पुनर्यत्र कुत्रचित् षष्टितन्त्रादौ?, इत्याह- कारणात् कार्यसिद्धिः, नाऽकारणादिति कृत्वा; कारणे हि सुविवेचिते प्रवर्तमानाः प्रेक्षावन्तः समीहितमप्रतिहतं कार्यमासादयन्ति, नाऽकारणे, अन्यथा तृणादपि हिरण्य-मणि-मौक्तिकाद्यवाप्तेः सर्वं विश्वमदरिद्रं स्यात्। कारणं च पारम्पर्येणावश्यकानुयोग एव मोक्षस्य, न षष्टितन्त्रादिकम्, ज्ञान-क्रियाजननद्वारेण तस्य मोक्षसंसाधकत्वात्, इतरस्य तु पारम्पर्येणाऽपि तदसाधकत्वात् // इति गाथार्थः॥ उक्तं फलद्वारम् // 3 // यह 'आवश्यक' भी, सम्यग्ज्ञान-क्रिया में कारण होने से, ज्ञान-क्रिया स्वरूप ही है, क्योंकि उसके अध्ययन, श्रवण, चिन्तन एवं उसके द्वारा प्रतिपादित आचरण में प्रवृत्ति करने वालों को अवश्य ही सम्यग्ज्ञान व (सम्यक्) क्रिया की प्राप्ति होगी। इस प्रकार, उक्त न्याय (दृष्टि) से, चूंकि 'आवश्यक' ज्ञान-क्रियात्मक है, अतः प्रेक्षावान् द्वारा उस 'आवश्यक' के व्याख्यान रूप 'अनुयोग' का व्याख्यान रूप प्रारम्भ किया जाना विरोधपूर्ण नहीं है, क्योंकि 'आवश्यक' से सम्यक् ज्ञान-क्रिया की प्राप्ति होकर, मोक्ष रूप फल की सिद्धि होगी। ...(शंका-) “अच्छा, यदि ऐसा है, कि 'आवश्यक' से सम्यक् ज्ञान-क्रिया की प्राप्ति, और उनकी प्राप्ति से मोक्ष रूप फल की सिद्धि होगी, तब तो यह मोक्ष रूप फल परम्परया 'आवश्यक' का हुआ, न कि आवश्यक-अनुयोग का? किन्तु फल का निरूपण तो इसी (आवश्यक-अनुयोग) का विचारणीय था।” (उत्तर-) यह सही है, किन्तु जिसकी व्याख्या होती है वह तो 'आवश्यक' है, उसका घ्याख्यान ही तो 'अनुयोग' है, अतः व्याख्यान (रूप अनुयोग) में उन्हीं अर्थों का निरूपण किया जायगा जो व्याख्येय (आवश्यक) में निहित हैं, इस दृष्टि से व्याख्येय (आवश्यक) का जो (मुक्ति-प्राप्ति रूप) फल है, वह फल व्याख्यान (रूप अनुयोग) का भी स्वतः सिद्ध हो जाता है, क्योंकि उन दोनों (व्याख्येय- आवश्यक, व्याख्यान- अनुयोग) का अभिप्राय (प्रयोजन) एक ही है। इसलिए जो मोक्ष रूप फल को पाना चाहते हैं, उन्हें आवश्यक-अनुयोग में अवश्य प्रवृत्त होना चाहिए, उस (अनुयोग में प्रवृत्त होने) से ज्ञान-क्रिया की प्राप्ति होगी और उससे मोक्ष फल की सिद्धि होगी। _ (शंका-) अच्छा, चलो मान लिया कि आवश्यक-अनुयोग से ज्ञान-क्रिया की प्राप्ति होती है और उनसे मोक्ष की सिद्धि होती है, किन्तु (इस मोक्ष की सिद्धि हेतु) इसी आवश्यक-अनुयोग में ही प्रवृत्ति क्यों करनी चाहिए, और अन्य किसी (तथाकथित मोक्ष-साधक) षष्टितन्त्र (संख्या) आदि शास्त्रों में क्यों नहीं? (समाधानः-) इस (शंका के निराकरण के लिए कहा- कारणात् कार्यसिद्धिः, ----- विशेषावश्यक भाष्य ---- 13