________________ नाण-किरियाहिं मोक्खो तम्मयमावस्सयं जओ तेण। तव्वक्खाणारम्भो कारणओ कजसिद्धि त्ति॥३॥ [संस्कृतच्छाया:- ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः, तन्मयमावश्यकं यतः तेन / तद्-व्याख्यानारम्भः, कारणतः कार्यसिद्धिः इति // ] व्याख्या- ज्ञानं च सम्यगवबोधरूपम्, क्रिया च तत्पूर्वकसावद्याऽनवद्ययोगनिवृत्ति-प्रवृत्तिरूपा, ज्ञानक्रिये, ताभ्यां तावद् मोक्षोऽशेषकर्ममलकलङ्काभावरूपः साध्यते, इति सर्वेषामपि शिष्टानां प्रमाणसिद्धमेव, दर्शनस्य ज्ञान एवाऽन्तर्निहितत्वादिति। यदि नाम ज्ञान-क्रियाभ्यां मोक्षः, तर्हि आवश्यकानुयोगस्य किमायातम्, येन फलवत्तया प्रेक्षावतां तत्र प्रवृत्तिः स्यात्?, इत्याहतन्मयमावश्यकम्-ताभ्यां ज्ञान-क्रियाभ्यां निर्वृत्तं तन्मयं ज्ञान-क्रियास्वरूपमावश्यकम्, तत्कारणत्वात. इति भावः। यथा ह्यायुर्वृद्धिकारणत्वेनोपचाराल्लोके घृतमायुरुच्यते, नड्वलोदकं पादरोग: कारणत्वात् तथैवाऽभिधीयते, एवं प्रस्तुतानुयोगविषयीकृतं सामायिकादिषडध्ययनसूत्रात्मकमावश्यकमपि सम्यग्ज्ञान-क्रियाकारणत्वात् तत्स्वरूपमेव, तदध्ययन-श्रवण-चिन्तनतदुक्ताचरणप्रवृत्तानामवश्यं सम्यग्ज्ञान-क्रियाप्राप्तेः। तस्मादुक्तन्यायेन ज्ञान-क्रियाऽऽत्मकं यत आवश्यकम्, अतस्तस्याऽऽवश्यकस्य व्याख्यानमनुयोगस्तव्याख्यानं तस्याऽऽरम्भः प्रेक्षावता क्रियमाणो न विरुध्यते, आवश्यकात् सम्यग्ज्ञान-क्रियाप्राप्तिद्वारेण मोक्षलक्षणफलसिद्धेः॥ (3) नाणकिरियाहिं मोक्खो, तम्मयमावस्सयं जओ तेण / तव्वक्खाणारम्भो कारणओ कज्जसिद्धि त्ति // [(गाथा-अर्थः) ज्ञान व क्रिया से मोक्ष प्राप्त होता है। चूंकि आवश्यक भी उन. (ज्ञान व क्रिया) से युक्त है, इसलिए उस (आवश्यक-अनुयोग) के व्याख्यान का प्रारम्भ किया जा रहा है, क्योंकि कारण से कार्य की सिद्धि होती है।] __ व्याख्याः- ज्ञान यानी सम्यक् बोध। क्रिया यानी ज्ञान-पूर्वक सावध (सदोष) 'योग' से निवृत्ति व अनवद्ययोग में प्रवृत्ति / ज्ञान और क्रिया- इन दोनों से समस्त कर्म-कलङ्क के अभाव रूप मोक्ष (का लाभ) होता है- यह सभी शिष्ट जनों को प्रमाण-प्रतीत ही है। यहां दर्शन को ज्ञान में ही अन्तर्निहित किया गया है। "अच्छा! ज्ञान व क्रिया से मोक्ष मिलता है- इस कथन का आवश्यकअनुयोग से क्या सम्बन्ध है जिससे कि फल-अभ्यर्थी प्रेक्षावान् (समझदार) इसमें प्रवृत्त हों?" इस शंका को दृष्टिगत रख कर कहा- तम्मयं आवस्सयं ति। तात्पर्य यह है कि ज्ञान व क्रिया -इन दोनों से तन्मय यानी समन्वित यह ज्ञानक्रियास्वरूपी 'आवश्यक' है, और इस प्रकार यह (भी) उस (मुक्ति की प्राप्ति) का कारण है, इसलिए। जैसे घृत आयु-वृद्धि में कारण होता है- इसलिए लोकव्यवहार में उपचार-कथन से 'घृत आयु है' -ऐसा कहा जाता है। इसी प्रकार नड्वल-उदक (सरकण्डों से व्याप्त जल) को पादरोग में कारण होने से 'नड्वलोदक पादरोग है' ऐसा कथन किया जाता है। उसी तरह, प्रस्तुत अनुयोग (व्याख्यान) की विषय-वस्तु और सामायिक आदि छः अध्ययनों से युक्त Na 12 -------- विशेषावश्यक भाष्य --