________________ सत्यम्, किन्तु “सामाइअंच तिविहं सम्मत्त सुअंतहा चरित्तं च" [सामायिकं च त्रिविध- सम्यक्त्वं श्रुतं तथा चारित्रं च] इत्यादिवक्ष्यमाणवचनादेकोऽपि सामायिकानुयोगस्तावत् संपूर्णचरण-गुणसंग्राहकः, किं पुनः सकलावश्यकानुयोगः? ततश्च संपूर्णचरण-गुणसंग्रहयुक्तत्वादावश्यकानुयोगोऽपि संपूर्णचरण-गुणसंग्रहत्वेनोक्तः, यथा दण्डयोगाद् दण्डः पुरुषः; इत्यदोषः। अथवा चरण-गुणानां संग्रहोऽत्रावश्यकानुयोगेऽसौ चरण-गुणसंग्रह इति बहुव्रीहिपक्षे प्रेर्यमेव नास्ति, केवलमस्मिन् पक्षे सकलमिति विशेषणमावश्यकानुयोगस्य चरण-गुणसंग्रहसंपूर्णत्वापेक्षयैव द्रष्टव्यमिति, एतच्च कष्टगम्यमित्युपेक्ष्यते॥ . आह-ननु यदि "सामाइअं च तिविहं" इत्यादिवक्ष्यमाणवचनात् सामायिकस्य संपूर्णचरण-गुणसंग्राहकत्वम्, तर्हि तदनुयोगकस्य तद्रूपत्वे किमायातम्? नैतदेवम्, सामायिकं हि व्याख्येयम्, अनुयोगस्तु व्याख्यानम्, व्याख्येय-व्याख्यानयोश्चैकाभिप्रायत्वादिहाऽभेदेन विवक्षितत्वाददोषः, इत्यलमतिचर्चयेति॥ अधिकरण (आश्रयभूत पदार्थ) पृथक्-पृथक् (भिन्न) हैं, अतः इन दोनों में सामानाधिकरण्य (समान, एक ही अधिकरण वाला होना) कैसे संगत हो सकता है? [जब उनमें समान-अधिकरणता नहीं, तब दोनों को अभिन्न रूप से गाथा में जो उपस्थापित किया गया है, वह संगत कैसे है?] उत्तर- यह सत्य है। किन्तु सामायिक तीन प्रकार की कही गई है- सम्यक्त्व, श्रुत और चारित्र, जिसका आगे कथन किया जाएगा। चूंकि एक भी 'सामायिक अनुयोग' सम्पूर्ण चरण-गुणों का संग्रहात्मक रूप है तो फिर सकल आवश्यक अनुयोग सम्पूर्ण चरण-गुण-संग्रह क्यों नहीं? दण्ड धारण करने वाले व्यक्ति को ‘दण्ड रूप पुरूष' कहा जाता है, उसी प्रकार सम्पूर्णचरणगुणसंग्रह से युक्त होने के कारण आवश्यक-अनुयोग को सम्पूर्ण चरणगुण-संग्रह कह दिया गया है, अतः (असंगति रूप) दोष नहीं है। अथवा इसका एक और समाधान यह है कि 'चरणगुणसंग्रह' में बहुव्रीहि समास है, जिससे अर्थ हुआ-- चरण-गुण का संग्रह जहां है, वह (आवश्यक अनुयोग)। इस समाधान की स्थिति में 'सकल' यह विशेषण 'आवश्यक' का न होकर आवश्यक के 'अनुयोग' का समझना चाहिए (क्योंकि आवश्यक तो स्वयं में सम्पूर्ण है ही)। 'सकल' इस विशेषण को चरण-गुण-सम्बन्धी संग्रह की पूर्णता का द्योतक समझना चाहिए। चूंकि यह समाधान थोड़ा कष्टबोध्य है, इसलिए इसे उपेक्षित किया जा रहा है। ... प्रश्नकर्ता पुनः शंका करता है- 'सामाइयं च तिविहं' इत्यादि कथन द्वारा आगे सामायिक के तीन प्रकार बताये गये हैं, यह सत्य है। किन्तु सम्पूर्ण चरणगुणसंग्रहात्मक 'सामायिक' की आवश्यक-अनुयोग से तद्रूपता अर्थात् अभिन्नता तो सिद्ध नहीं हुई? ..उत्तर- यह दोष नहीं है। क्योंकि 'सामायिक' व्याख्या करने योग्य -व्याख्येय है और 'अनुयोग' तो व्याख्यान है। व्याख्येय और व्याख्यान का एक ही अभिप्राय है, इसलिए दोनों में अभेद मानने से, दोनों में एकरूपता-अभिन्नता संगत है, अतः यहां कोई दोष नहीं है। अतः और अधिक चर्चा की आवश्यकता नहीं है। ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 5