________________ पंचसता इगतीसा सग-निव-कालस्स वट्टमाणस्स। तो चेत्तपुण्णिमाए बुधदिणसातिमि णक्खत्ते॥ रज्जे णु पालणपुरे सी...इच्चंमि णरवरिंदम्मि। वलभीणगरीए इयं महवि..... मि जिणभवणे॥ संभवतः उक्त काल ग्रन्थ के लिपिकरण का है न कि ग्रन्थरचना का। ये पद्य मूल भाष्य के नहीं हैं, अपितु लिपिकार के हैं। यदि ये पद्य भाष्य के अंग होते तो स्वोपज्ञ टीकाओं में, तथा सभी हस्तलिखित प्रतियों में अवश्य मिलते। किन्तु उक्त प्रति के अलावा अन्य किसी प्रति में ये पद्य नहीं मिलते, अत: निश्चित ही उक्त रचना-काल ग्रन्थ-रचना का नहीं, अपितु ग्रंथ के लिपिकरण का ही है। शिष्यहिता बृहवृत्ति और आ. मलधारी हेमचंद्र आवश्यक नियुक्ति में सूत्र रूप से किये गये प्रतिपादन को सहज सुबोध्य व अधिक स्पष्ट करने हेतु आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण द्वारा विशेषावश्यक भाष्य की रचना की गई थी। कालक्रमवश यह भाष्य भी दुर्बोध्य हो जाएगा - इस दृष्टि से क्षमाश्रमण ने स्वोपज्ञ वृत्ति भी लिखी। उनकी परम्परा के कोट्याचार्य ने भी एक पृथक् विवरण (वृत्ति) लिखा। किन्तु ये व्याख्याएं भी कुछ लोगों के लिए दुर्बोध्य हो गईं। ऐसी स्थिति में मन्दतम गति वाले शिष्यों पर अनुग्रह भावना से आचार्य मलधारी हेमचंद्र ने भाष्य को सुस्पष्ट करने हेतु एक बृहद् वृत्ति (28 हजार श्लोक प्रमाण) लिखी, जिसका अन्वर्थक नाम 'शिष्यहिता' है। इसकी रचना राजा जयसिंह के शासन-काल में (वि. सं. 1175 में) हुई। बृहद्वृत्ति की रचना में निमित्त शिष्यहिता टीका के प्रारम्भ में स्वयं ग्रन्थकार ने इसकी रचना के निमित्त को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि दुःषमा कालचक्र के प्रभाव से शिष्यों की बुद्धि आदि का ह्रास होता जा रहा है, इसलिए वर्तमान के कुछ मंदमति शिष्यों के लिए विशेषावश्यक भाष्य आदि ग्रन्थ गूढार्थ व संक्षिप्त प्रतीत हो रहे हैं (अर्थात् वे सामान्यजन के लिए सुबोध्य नहीं रहे और उनके हार्द को समझने के लिए विस्तार से कहने की अपेक्षा हो गई है), मंदतम मति वाले शिष्य विषयवस्तु को अधिक विस्तार से समझना चाहते हैं, उनके लिए ये ग्रंथ उपकारी नहीं रह गए हैं, ऐसा सोचकर कोई ऐसी विस्तृत वृत्ति लिखी जानी चाहिए, इस दृष्टि से, तथा यह सोच कर कि मंदतममति शिष्यों के लिए ग्रंथ सुबोध्य हों और साथ ही मेरा स्वयं का श्रुताभ्यास (स्वाध्याय) भी सम्पन्न हो, मैं (मलधारी हेमचंद्र) -यद्यपि मैं मंदमति हूं, तथापि- विशेषावश्यक भाष्य पर बृहद्वृत्ति की रचना कर रहा हूं।" 69. द्र. जैन आगम साहित्यः मनन और मीमांसा, ले. देवेन्द्र मुनि, पृ. 460-61. 70. तथापि अतिगंभीरवाक्यात्मकत्वात् किंचित् संक्षेपरूपत्वाच्च, दुःषमानुभावतः प्रज्ञा-आदिभिरपचीयमानानां किमपि विस्तराभिधानरुचीनां शिष्याणां नासौ तथाविधोपकारं सांप्रतमाधातं क्षमाः इति विचिन्त्य मुत्कलतरवाक्यप्रबन्धरूपा किमपि विस्तारवती च मन्दमतिनापि मया मन्दतम-मतिशिष्यावबोधार्थं श्रुताभ्यास -संपादनार्थं च वृत्तिरियमारभ्यते (बृहद्वृत्ति का प्रारम्भ)। ROBCROPORORSCROROR [55] ROOROROSCROOK