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साग्मध्यादृष्टि है, इत्यादिक विशेष रूप से यहाँ अपूर्वकरणप्रविष्टशुद्धिसंयतों, अनिवृत्तिबादर-साम्परायिकप्रविष्टशुद्धिसंयतों और सूक्ष्मसाम्परायिकप्रविष्टशुद्धिसंयतों इन तीन (८, ६, १०) गुणस्थानों में उपशम श्रेणि की अपेक्षा उपशमकों के और क्षपकश्रेणि की अपेक्षा क्षपकों के भी अस्तित्व को प्रकट किया गया है। (८-२२)।
इस प्रकार सामान्य से चौदह गुणस्थानवी जीवों के अस्तित्व को दिखाकर तत्पश्चात् गुणस्थानातीत सिद्धों के भी अस्तित्व को प्रकट किया गया है (२३)।
१. गतिमार्गणा-ओघप्ररूपणा के पश्चात् आदेश प्ररूपणा को प्रारम्भ करते हुए चौदह मार्गणाओं में प्रथम गति मार्गणा का आश्रय लेकर उसके ये पाँच भेद निर्दिष्ट किये गये हैंनरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति और सिद्धगति । इनमें से नारकियों के मिथ्या दृष्टि आदि चार, तिर्यंचों के मिथ्यादृष्टि आदि पाँच, मनुष्यों के मिथ्यादष्टि आदि चौदहों
और देवों के मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्थानों के अस्तित्व को प्रकट किया गया है (२४-२८)।
इस प्रसंग में आगे कुछ विशेषता प्रकट करते हुए एकेन्द्रियों से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त तियंचों को शुद्ध तिर्यंच और संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतासंयत पर्यन्त मिश्र कहा गया है। इसका अभिप्राय यह है कि एकेन्द्रियादि असंज्ञी पर्यन्त सब जीव एकमात्र तियंचगति में होते हैं, इसीलिए उन्हें शुद्ध तिर्यंच कहा गया है। पर आगे के वे संज्ञी पंचेन्द्रियादि संयतासंयत पर्यन्त प्रथम चार गुणस्थानों की अपेक्षा शेष तीन गतियों के जीवों से तथा संयतासंयत गुणस्थानवर्ती वे इस गुणस्थान की अपेक्षा मनुष्यों से समानता रखते हैं, इसीलिए उन्हें मिश्र कहा गया है । यही अभिप्राय आगे मिश्र और शुद्ध मनुष्यों के कहने में भी समझना चाहिए (२६-३२)।
२. इन्द्रिय-दूसरी इन्द्रिय मार्गणा के प्रसग में प्रथमतः एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय (इन्द्रियातीत सिद्ध) इन इन्द्रियों की अपेक्षा पाँच जीवभेदों का उल्लेख करके तत्पश्चात् पंचेन्द्रिय पर्यन्त उन एकेन्द्रियादि जीवों के यथाक्रम से भेदप्रभेदों का निर्देश किया गया है (३३-३५) । आगे उनमें सम्भव गुणस्थानों का उल्लेख करते हुए एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पर्यन्त सब के एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के अस्तित्व को प्रकट किया गया है। आगे के सत्र में असंज्ञी पंचेन्द्रिय से लेकर अयोगिकेवली पर्यन्त सब ही जीव पंचेन्द्रिय होते हैं, यह कहा गया है, जिसका अभिप्राय यह है कि संज्ञी पंचेन्द्रियों में चौदहों गुणस्थान सम्भव हैं (३६-३७) । तत्पश्चात् वहां यह भी स्पष्ट कर दिया है कि उक्त एकेन्द्रियादि पंचेन्द्रिय जीवों से परे सब जीव अनिन्द्रिय-एकेन्द्रियादि जातिभेद से रहित कर्म-कलंकातीत (सिद्ध) होते हैं (३८)।
३. काय-तीसरी कायमार्गणा के प्रसंग में पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक और अकायिक जीवों के अस्तित्व को दिखाकर आगे उनके भेद-प्रभेदों को प्रकट किया गया है। अनन्तर पृथिवीकायिकादि पाँच स्थावर जीवों में एकमात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के सद्भाव को बतलाकर द्वीन्द्रिय से लेकर अयोगिकेवली पर्यन्त सब जीव त्रसकायिक होते हैं, यह अभिप्राय व्यक्त किया गया है। बादर एकेन्द्रिय से लेकर अयोगिकेवली पर्यन्त सब जीव बादर होते हैं। इन स्थावर और त्रस जीवों से परे अकायिक शरीर से रहित हुए सिद्ध होते हैं (३६-४६)।
मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | ४५
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