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होते । किन्तु काययोग पर्याप्तकों के भी होता है और अपर्याप्तकों के भी होता है ( ६४-६६ ) ।
प्रसंग पाकर यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि छह पर्याप्तियाँ और छह अपर्याप्तियाँ संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक, पाँच पर्याप्तियाँ व पाँच अपर्याप्तियाँ द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक और चार पर्याप्तियाँ व चार अपर्याप्तियाँ एकेन्द्रिय जीवों के होती हैं ( ७०-७५ ) 1
उपर्युक्त औदारिकादि सात काययोगों में कौन पर्याप्त जीवों के और कौन अपर्याप्त जीवों के होते हैं, इसका भी यहाँ विचार किया गया है ( ७६-७८ ) । तत्पश्चात् क्रम से चारों गतियों में पर्याप्त अपर्याप्त जीवों के जो गुणस्थान सम्भव हैं और जो सम्भव नहीं हैं उनके सद्भावअसद्भाव को प्रकट किया गया है (७६- १०० ) ।
५. वेदइ -- इस मार्गणा के प्रसंग में स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी और अपगतवेदी जीवों के अस्तित्व को प्रकट करते हुए यह कहा गया है कि इनमें स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी असंज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक तथा नपुंसकवेदी एकेन्द्रिय से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक होते हैं । इसके आगे सब जीव अपगतवेद (वेद से रहित ) होते हैं। आगे इस प्रसंग में यहाँ क्रम से नरकादि चारों गतियों में किस वेदवाले कहाँ तक होते हैं, इसका भी विचार किया गया है (१०१-१०) ।
६. कषाय - कषायमार्गणा में क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकषायी और अकषायी जीवों के अस्तित्व को दिखाकर उनमें कौन किस गुणस्थान तक होते हैं इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि क्रोधकषायी, मानकषायी और मायाकषायी ये एकेन्द्रिय से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक, लोभकषायी एकेन्द्रिय से लेकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक तथा अकषायी जीव उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन चार गुणस्थानों में होते हैं (१११-१४) ।
७. ज्ञान - ज्ञानमार्गणा की प्ररूपणा में मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी और विभंगज्ञानी इन तीन अज्ञानियों के साथ आभिनिबोधिक ज्ञानी आदि पाँच सम्यग्ज्ञानियों के अस्तित्व को दिखलाकर उनमें यथा सम्भव गुणस्थानों के सद्भाव को प्रकट किया गया है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में आभिनिबोधिक आदि तीन सम्यग्ज्ञानों को मतिअज्ञान आदि तीन अज्ञानों से मिश्रित कहा गया है ( ११५-२२) ।
८. संयम -- इस मार्गणा के प्रसंग में सामायिक शुद्धिसंयत, छेदोपस्थापना - शुद्धिसंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सुक्ष्मसाम्परायिक शुद्धिसंयत व यथाख्यातविहार-शुद्धिसंयत इन पाँच संयतों के साथ संयतासंयत और असंयत जीवों के अस्तित्व को प्रकट करके उनमें कहाँ कितने गुणस्थान सम्भव हैं; इसे स्पष्ट किया गया है ( १२३-३०) |
यहाँ धवला में यह शंका की गई है कि संयम के प्रसंग में असंयतों और सयतासयतों का ग्रहण नहीं होना चाहिए । इसके समाधान में वहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि जिस प्रकार आम्रवृक्षों की प्रधानता से 'आम्रवन' के नाम से प्रसिद्ध वन के भीतर अवस्थित नीम आदि अन्य वृक्षों का भी 'आम्रवन' यह नाम देखा जाता है उसी प्रकार संयम की प्रधानता से इस संयममार्गणा में असंयतों और संयतों का ग्रहण विरुद्ध नहीं है । अन्यथा, आम्रवन में अवस्थित नीम आदि अन्य वृक्षों से व्यभिचार का प्रसंग प्राप्त होता है ।
६. दर्शन - इस मार्गणा के प्रसंग में चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी और केवल
मूलग्रन्थगत विषय का परिचय / ४७
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