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अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य इन चार पदों के योग्य जीवों की प्ररूपणा है। अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में भी इन्हीं चार पदों के अल्पबहुत्व की व्याख्या है (पु० १०, पृ० १८-१६)।
आगे 'क्या ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्य से उत्कृष्ट है या अनुत्कृष्ट, जघन्य है या अजघन्य' इस पृच्छासूत्र (४,२,४,२) की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने प्रारम्भ में यह सूचना की है कि यह पृच्छासूत्र देशामर्शक है इसलिए यहाँ उपर्युक्त चार पृच्छाओं के साथ अन्य नौ पृच्छाओं को भी करना चाहिए; क्योंकि इसके बिना सूत्र के असम्पूर्ण होने का प्रसंग प्राप्त होता है। किन्तु महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के पारंगत भूतबलि भट्टारक असम्पूर्ण सूत्र नहीं रच सकते हैं, क्योंकि उस का कोई कारण नहीं है। इसलिए इस सूत्र को ज्ञानावरणीयवेदना क्या उत्कृष्ट है, अनुत्कृष्ट है, जघन्य है, अजघन्य है, सादि है, अनादि है, ध्र व है, अध्र व है, ओज है, युग्म है, ओम है, विशिष्ट है या नोम-नोविशिष्ट है, इन तेरह पदविषयक पृच्छाओं से गर्भित समझना चाहिए।
धवला में आगे कहा गया है कि इस प्रकार विशेष के अभाव से ज्ञानावरणीय वेदना की सामान्य प्ररूपणा के विषय में इन पृच्छाओं की प्ररूपणा है। सामान्य चूंकि विशेष का अविनाभावी है, इसलिए हम यहां विशेष रूप में इसी सूत्र से सूचित उन तेरह पदविषयक इन पृच्छाओं की प्ररूपणा करते हैं-उत्कृष्ट ज्ञानावरणीय वेदना क्या अनुत्कृष्ट है, जघन्य है, अजघन्य है, सादि है, अनादि है, ध्रुव है, अध्र व है, ओज है, युग्म है, ओम है, विशिष्ट है और क्या नोमनोविशिष्ट है; इस प्रकार ये बारह पृच्छाएं उत्कृष्ट ज्ञानावरणीयवेदना के विषय में अपेक्षित हैं। इसी प्रकार से अनुत्कृष्ट, जघन्य व अजघन्य आदि अन्य बारह पदों में पृथक्-पृथक् प्रत्येक पद के विषय में भी करना चाहिए। इन समस्त पृच्छाओं का योग एक सौ उनत्तर होता हैसामान्य पृच्छाएँ १३, विशेष पृच्छाएँ १३१२= १५६; १३+१५६ == १६६ ।
निष्कर्ष के रूप में धवलाकार ने कहा है कि इससे प्रकृत देशामर्शक सूत्र में अन्य तेरह सूत्र प्रविष्ट हैं, यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए।
पूर्व सूत्र में निर्दिष्ट चार पृच्छाओं के सन्दर्भ में कहा है कि ज्ञानावरणीय वेदना उत्कृष्ट भी है, अनुत्कष्ट भी है, जघन्य भी है और अजघन्य भी है (सूत्र ४,२,४,३)। ___इसकी व्याख्या में धवला में कहा है कि यह सूत्र भी देशामर्शक है इसलिए सूत्रनिर्दिष्ट उन चार पदों के साथ सादि-अनादि आदि शेष नौ पदों को भी यहाँ कहना चाहिए। उसके देशामर्शक होने से ही शेष तेरह सूत्रों का अन्तर्भाव कहना चाहिए । तदनुसार प्रथम सूत्र की प्ररूपणा करते हुए स्पष्ट किया गया है कि ज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् उत्कृष्ट है, क्योंकि भवस्थिति के अन्तिम समय में वर्तमान गुणितकर्माशिक सातवीं पृथिवी के नारकी के उत्कृष्ट द्रव्य पाया जाता है। वह कथंचित् अनुत्कृष्ट भी है, क्योंकि कर्मस्थिति के अन्तिम समयवर्ती गुणितकर्माशिक को छोड़कर अन्यत्र सर्वत्र अनुत्कृष्ट द्रव्य पाया जाता है । वह कथंचित् जघन्य भी है, क्योंकि क्षपितकर्माशिक क्षीणकषाय के अन्तिम समय में जघन्य द्रव्य पाया जाता है। वह कथंचित् अजघन्य भी है, क्योंकि शुद्ध नय से क्षपितकर्माशिक क्षीणकषाय के अन्तिम समय को छोड़कर अन्यत्र सर्वत्र ही अजघन्य द्रव्य पाया जाता है। वह कथंचित् सादि है, क्योंकि उत्कृष्ट आदि पद एक स्वरूप से अवस्थित नहीं रहते । वह कथंचित् अनादि है, क्योंकि जीव और कर्मों के बन्धसामान्य सादि होने का विरोध है। वह कथंचित् ध्रुव है, क्योंकि अभव्यों और अभव्य समान भव्यों के भी सामान्य ज्ञानावरण का विनाश सम्भव नहीं है। वह कथंचित् अध्र व है, क्योंकि केवली के मानावरण का विनाश पाया जाता है, अथवा चारों पदों का शाश्वतिक रूप में अवस्थान सम्भव
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