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वृत्तिकार वसुनन्दी ने यद्यपि 'कि केण कस्स' आदि पदों के आश्रय से छह प्रकार के संसार को अभिव्यक्त किया है, पर वह प्रसंग को देखते हुए अस्वाभाविक-सा दिखता है । अन्त में उन्हें भी गाथा के चतुर्थ चरण (सव्वे भावाणुगंतव्वा) को लेकर यह कहना पड़ा है कि इन छह अनुयोगद्वारों के द्वारा केवल संसार का अनुगमन नहीं करना चाहिए, किन्तु सभी पदार्थों का उन के आश्रय से अनुगमन करना चाहिए। अब जरा जीवसमास को देखिए, वहाँ उसको प्रसंग के अनुरूप कितना महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है
जीवसमास में इससे पूर्व की गाथा (२) में निक्षेप, निरुक्ति तथा छह और आठ अनुयोगद्वारों के द्वारा गति आदि मार्गणाओं में जीवसमासों के जान लेने के लिए कहा गया है' और तदनुसार ही आगे वहाँ क्रम से निक्षेप, निरुक्ति तथा उक्त निर्देशादि रूप छह और सत्प्ररूपणा आदि रूप आठ अनुयोगद्वारों को स्पष्ट किया गया है। इस प्रकार प्रसंग के अनुसार वहाँ उस गाथा की स्थिति दृढ़ है ।
ख - त०सू० के ७वें अध्याय में व्रत के स्वरूप और उसके भेदों का निर्देश करते हुए उनकी स्थिरता के लिए यथाक्रम से अहिंसादि पाँच व्रतों की पांच-पांच भावनाओं का उल्लेख किया गया है ।
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मूलाचार के पंचाचाराधिकार में उनका उल्लेख प्रायः उसी क्रम से व उन्हीं शब्दों में किया गया है । उदाहरणस्वरूप द्वितीय व्रत की भावनाओं को उक्त दोनों ग्रन्थों में देखिए"क्रोध-लोभ-भीरुत्व-हास्य- प्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पञ्च । " -- त०सू० ७-५ कोह-भय- लोह -हासपइणा अणुवीचिभासणं चेव ।
fafare भावणाओ वदस्स पंवेव ता होंति ।। - मूला० ५- १४१
इस प्रकार यह निश्चित-सा प्रतीत होता है कि उन भावनाओं का वर्णन त०सू० में मूलाचार के आधार से ही किया गया है ।
ग - त० सू० में संवर और निर्जरा के कारणों को स्पष्ट करते हुए उस प्रसंग में नवम अध्याय में बाह्य और आभ्यन्तर तप के छह-छह भेदों का निर्देश किया गया है। *
मूलाचार के उक्त पंचाचाराधिकार में 'तप' आचार के प्रसंग में उन दोनों तपों के भेदों का उल्लेख किया गया है ।"
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इतना विशेष है कि त०सू० में जहाँ उनके केवल नामों का ही उल्लेख किया गया है वहाँ मुख्य प्रकरण होने से मूलाचार में तप के उन भेदों के स्वरूप आदि को भी पृथक्-पृथक् स्पष्ट कर दिया गया है।
१. णिक्खेव - णिरुत्तीह य छहि अट्ठहि अणुओंगदारेहि ।
गइ आइमग्गणाहि य जीवसमासाऽणुगंतव्वा || - जी०स०, गा० २
२. देखिए त०सू० ७,४-८
३. मूलाचार, ५, १४०-४४
४. त०सू०, ९,१६-२०
५. मूलाचार, ५-१४६ व ५-१६३
६. मलाचार, बाह्य तप ५, १४६ - ६२ ( अभ्यन्तर तप का विशेष विस्तार वहाँ पर नहीं किया गया है ।)
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प्रन्थकारोल्लेख / ६६३
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