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(२) चार क्षपकों व अयोगिकेवलियों की वह संख्या उपशामकों से दूनी (३०४४३= ६०८) है। यहां भी धवलाकार ने उक्त दोनों प्रकार के व्याख्यान का निर्देश करते हुए दस (५४२) कम के व्याख्यान को दक्षिणप्रतिपत्ति और सम्पूर्ण छह सौ आठ के व्याख्यान को उत्तरप्रतिपत्ति कहा है।'
(३) यहीं पर आगे धवला में दक्षिणप्रतिपत्ति के अनुसार अप्रमत्तसंयतों का प्रमाण २६६६६१०३ और प्रमत्तसंयतों का ५६३९८२०६ कहा गया है। उत्तरप्रतिपत्ति के अनुसार इन दोनों का प्रमाण क्रम से २२७६६४६८ और ४६६६६६६४ कहा गया है।'
(४) इसी प्रकार के एक अन्य प्रसंग के विषय में पीछे 'सूत्र के अभाव में आचार्यपरम्परागत उपदेश को महत्त्व' शीर्षक में विचार किया जा चुका है।
(५) वेदनाद्रव्यविधान में जघन्य ज्ञानावरणीयद्रव्य वेदना के स्वामी की प्ररूपणा के प्रसंग में सूत्रकार द्वारा उसका स्वामी क्षपितकर्माशिकस्वरूप से युक्त अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ निर्दिष्ट किया गया है।-सूत्र ४२,४,४८-७५
यहाँ धवलाकार ने अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ के स्वरूप को प्रकट करते हुए 'एत्य उवसंहारो उच्चदें' इस प्रतिज्ञा के साथ उपसंहार के विषय में प्ररूपणा और प्रमाण इन अनुयोगद्वारों का उल्लेख किया है । आगे उन्होंने इन दो अनुयोगद्वारों में 'पवाइज्जत उपदेश के अनुसार प्ररूपणा अनुयोगद्वार का कथन करते हैं। इस सूचना के साथ उस 'प्ररूपणा' अनुयोगद्वार की प्ररूपणा की है।
तत्पश्चात् उन्होंने अप्पवाइज्जंत उपदेश के अनुसार यह भी स्पष्ट किया है कि कमंस्थिति के आदिम समयप्रबद्ध सम्बन्धी निर्लेपनस्थान कर्मस्थिति के असंख्यातवें भाग मात्र होते हैं । इस प्रकार सभी समयप्रबद्धों के विषय में कहना चाहिए । शेष पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र समयप्रबद्धों के एक परमाणु को आदि करके उत्कर्ष से अनन्त तक परमाणु रहते हैं। - इस प्रसंग में वहाँ यह शंका की गयी है कि निर्लेपनस्थान पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र ही होते हैं, यह कैसे जाना जाता है । इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि कषायप्राभूतचूर्णिसूत्र से जाना जाता है। इसे आगे उन्होंने कषायप्राभूतचूणिसूत्रों के अनुसार स्पष्ट भी किया है । यथा
कषायप्राभूत में सर्वप्रथम 'पूर्व में निर्लेपन-स्थानों के उपदेश की प्ररूपणा ज्ञातव्य है' यह सूचना करते हुए चूर्णिकर्ता ने स्पष्ट किया है कि यहाँ दो प्रकार का उपदेश है । एक उपदेश के अनुसार कर्मस्थिति के असंख्यात बहुभाग प्रमाण निर्लेपन-स्थान हैं । दूसरे उपदेश के अनुसार वे पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र हैं। उनमें जो उपदेश प्रवाहमान (पवाइज्जंत) है उसके अनुसार पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात वर्गमूल प्रमाण निर्लेपनस्थान हैं।"
(६) इसी द्रव्यविधान की चूलिका में असंख्यातगुण वृद्धि और हानि कितने काल होती
१. धवला, पु० ३, पृ० ६३-६४ २. वही, पृ. ६९-१०० ३. धवला पु० १०, पृ० २६७-६८; धवला पु० १२, पृ० २४०-४५ भी द्रष्टव्य हैं। ४. क०पा० सुत्त, पृ० ८३८, चूणि ६६४-६८; इसके पूर्व वहाँ पृ० ५६२-६३, चूणि २८७-६२
भी द्रष्टव्य हैं।
वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति | ७२५
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