Book Title: Shatkhandagama Parishilan
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 895
________________ परिशिष्ट-४ ज्ञानावरणादि के बन्धक प्रत्यय (पु० १२, पृ० २७५-६३) नेगम, व्यवहार और संग्रह नय को विवक्षा से१. प्राणातिपात ४,२,८,२ १५. निदान ४,२,८,९ २. मृषावाद ४,२,८,३ १६. अभ्याख्यान ४,२,८,१० ३. अदत्तादान ४,२,८,४ १७. कलह ४. मथुन ४,२,८,५ १८. पैशून्य ५. परिग्रह ४,२,८,६ १६. रति ६. रात्रिभोजन ४,२,८,७ २०. अरति ७. क्रोध ४,२,४,८ २१. निकृति ८. मान २२. मान (प्रस्थादि) ६. माया २३. माय (मेय-गेहूँ आदि) १०. लोभ २४. मोष (स्तेय) ११. राग २५. मिथ्याज्ञान १२. द्वेष २६. मिथ्यादर्शन १३. मोह २७. प्रयोग १४. प्रेम (मन-वचन-काययोग) , धवलाकार ने तत्त्वार्थसूत्रप्ररूपित (८-१) पांच बन्ध हेतुओं में से उपर्युक्त १-६ प्रत्ययों का अविरति में, ७-२४ प्रत्ययों का कषाय में, २५-२६ का मिथ्यात्व में और (२७) का योग में अन्तर्भाव प्रगट क्रिया है। शंका-समाधान में उन्होंने उपर्युक्त प्रत्ययों से भिन्न प्रमाद का अभाव निर्दिष्ट किया है । -धवला पु० १२, पृ० २८६ (सूत्र१०) ऋजुसत्रनय की विपक्षा में प्रकृति और प्रदेशाग्न वेदना को योगनिमित्तक (सूत्र ४,२, ८,१२) और स्थिति व अनुभाग वेदना को कषायनिमित्तक (सूत्र ४,२,८,१३) निर्दिष्ट किया गया है। शब्दनय की अपेक्षा पदों में समास के सम्भव न होने से ज्ञानावरणादि वेदना को अवक्तव्य कहा गया है (सूत्र ४,२,८,१५) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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