Book Title: Shatkhandagama Parishilan
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 972
________________ १६ २१ ३२ गिद्धि-पिछाइरिय प्पयासि सितिच्चत्थसुत्ते मुण्डपार पदार्थावबोधक के हासपणा गिद्धपिछाइरिय प्पयासित-तच्चत्थसुत्ते मुण्डपाद पदार्थावबोध के हासपइण्णा ६६१ पुनश्च निम्नलिखित प्रसंगों में अपेक्षित अभिप्राय के लिए उन्हें शुद्ध रूप में इस प्रकार पढ़े(१) मुद्रित पृ० ६३ पर २३-२५ पक्तियों में मुद्रित सन्दर्भ के स्थान में शुद्ध सन्दर्भ सातावेदनीय सबसे तीव्र अनुभाग वाला है । यशःकीति और उच्चगोत्र दोनों समान होकर उससे अनन्तगुणे हीन हैं। उनसे देवगति अनन्तगणी हीन है । उससे कार्मणशरीर अनन्तगुणा हीन है। उससे तेजसशरीर अनन्तगुणा हीन है । उससे आहारक शरीर अनन्तगुणा हीन है । इत्यादि सूत्र ४,२,७.६६-११७ (पु० १२) । (२) मुद्रित पृ० १०१, पंक्ति १-४ में मुद्रित सन्दर्भ के स्थान में शुद्ध सन्दर्भ-- तत्पश्चात् जिस जघन्य स्वस्थानवेदनासंनिवर्ष को पूर्व (सूत्र ४) में स्थगित किया गया था उसकी प्ररूपणा को प्रारम्भ करते हुए उसे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है (सूत्र ५) । पश्चात् ज्ञानावरणादि आठ वेदनाओं में किसी एक को विवक्षित करके जिस जीव के वह द्रव्य-क्षेत्रादि में किसी एक की अपेक्षा जघन्य या अजघन्य होती है उसके वही क्षेत्र आदि अन्य की अपेक्षा जघन्य या अजघन्य किस प्रकार की होती है, इसका तुलनात्मक रूपं में विचार किया गया है । सूत्र ६५-२१६ (पु० १२)। उदाहरणार्थ-जिस जीव के ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्य से जघन्य होती है उसके वह क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य होती है या अजधन्य, इसे स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि उसके क्षेत्र की अपेक्षा नियम से अजघन्य व उससे असंख्यातगणी अधिक होती है (सूत्र ६६-६७), इत्यादि । (३) पृ० ३३६ के आरम्भ में ये पंक्तियाँ मुद्रित होने से रह गयी हैं १. मंगल-उन छह में प्रथमतः मंगल की प्ररूपणा धवलाकार ने क्रम से इन छह अधिकारों में की है-(१) धातु, (२) निक्षेग, (३) नय, (४) एकार्थ, (५) निरुक्ति और अनुयोगद्वार। (४) पृ० ४७६, पंक्ति ११-१४ में मुद्रित प्रसंग के स्थान पर शुद्ध इस प्रकार पढ़िए ___ इतना स्पष्ट करते हुए आगे धवला में कहा गया है कि इस प्रकार विशेष की अपेक्षा न करके सामान्य रूप ज्ञानावरणीयवेदना विषयक इन तेरह पृच्छाओं की प्ररूपणा की गई है । वह सामान्य चूंकि विशेष का अविनाभावी है, इसलिए हम यहाँ इस सूत्र से सूचित उन तेरह पदविषयक इन तेरह पृच्छानों की प्ररूपणा करते हैं। (५) पृ० ४८० में १४वीं पंक्ति के स्थान में शुद्ध सन्दर्भ ---... __इसी पद्धति से आगे धवला में कम से उत्कृष्ट, अनुकृष्ट, जघन्य, अजघन्य, सादि, अनादि, ध्र व, अध्र व, ओज, युग्म, ओम, विशिष्ट और नोमनोविशिष्ट इन तेरह पदों में से एक-एक को प्रधान करके शेष बारह पदों का यथासम्भव विचार किया गया है । इस प्रकार से धवला में प्रकृत सूत्र के साथ उसके अन्तर्गत तेरह सूत्रों को लेकर चौदह सूत्रों का अर्थ किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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