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है, इसे स्पष्ट करते हुए सूत्रकार ने कहा है कि वह जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त तक होती है। सूत्र ४,२,४,२०४-५ ।।
इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि अधस्तन और उपरिम पंचसामयिक आदि योगस्थान यदि प्रथम गुणहानि मात्र हों तो ऊपर के चतुःसामयिक योगस्थानों के अन्तिम समय में दुगुणवद्धि उत्पन्न हो सकती है। पर ऐसा नहीं है, क्योंकि उस प्रकार का उपदेश नहीं है । तो फिर कैसा उपदेश है, यह पूछने पर धवलाकार ने कहा है कि ऊपर के चतुःसामयिक योगस्थानों के अन्तिम योगस्थान से नीचे असंख्यातवें भागमात्र उतरकर दुगुणवृद्धि होती है। इस कारण ऊपर के चार समययोग्य योगस्थानों में दो ही वृद्धियां होती हैं, यह पवाइज्जत उपदेश है। यह पवाइज्जत उपदेश है, यह कैसे जाना है; यह पूछे जाने पर धवलाकार ने कहा है कि पवाइज्जत उपदेश के अनुसार जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से ग्यारह समय हैं; अन्यतर (अपवाइज्जंत) उपदेश के अनुसार जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से पन्द्रह समय हैं। इस प्रदेशबन्ध सूत्र से जाना जाता है। इससे ज्ञात होता है कि ऊपर के चार समय योग्य योगस्थानों में दो ही वृद्धियाँ होती हैं, संख्यातगुणवृद्धि नहीं होती।
( वेदनाक्षेत्रविधान में ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट वेदना क्षेत्र की अपेक्षा किसके होती है, इसे स्पष्ट करते हुए सूत्रकार ने कहा है कि वह हजार योजन की अवगाहमावाले उस मत्स्य के होती है जो स्वयम्भूरमणसमुद्र के बाह्य तट पर स्थित है। -सूत्र ४,२,५,७-८
इसकी व्याख्या के प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गयी है कि महामत्स्य का आयाम तो हजार योजन है, पर उसका विष्कम्भ और उत्सेध कितना है। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि उसका विष्कम्भ पांच सौ योजन और उत्सेध दो सौ पचास योजन है । इस पर पुनः यह शंका की गयी है कि यह सूत्र के बिना कैसे जाना जाता है । इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि वह आचार्यपरम्परागत पवाइज्जंत उपदेश से जाना जाता है।
प्रकारान्तर से उन्होंने यह भी कहा है कि महामत्स्य के विष्कम्भ और उत्सेधविषयक सूत्र है ही नहीं, ऐसा नियम नहीं है; क्योंकि सूत्र में 'जोयणसहस्सिओ' यह जो कहा गया है, वह देशामर्शक होकर उसके विष्कम्भ और उत्सेध का सूचक है।'
इसी प्रसंग में आगे धवला में मतान्तर का उल्लेख करते हुए यह कहा गया है कि कुछ आचार्यों के मतानुसार वह मत्स्य पश्चिम दिशा से मारणान्तिक समुद्रात को करके पूर्व दिशा में लोकनाली के अन्त तक आया, फिर विग्रह करके नीचे छह राजु प्रमाण गया, तत्पश्चात् पुनः विग्रह करके पश्चिम दिशा में आधे राजु प्रमाण माया और अवधिष्ठान नरक में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार ज्ञानावरणीय की क्षेत्रवेदना का उत्कृष्ट क्षेत्र साढ़े सात राजु होता है। उनके इस अभिमत का निराकरण करते हुए धवलाकार ने कहा है कि वह घटित नहीं होता, क्योंकि उपपादस्थान को लांघकर गमन नहीं होता, यह पवाइज्जत उपदेश से सिद्ध है।
१. धवला, पु० १०, पृ० ५०१-२ २. इस प्रसंग में आगे उक्त महामत्स्य की कुछ अन्य विशेषताएँ भी प्रकट की गयी हैं ।
--सूत्र ६-१२ ३. धवला, पु० ११, पृ० १४-१६ ४. वही, पृ० २२
७२६ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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