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इस प्रकार धवलाकार ने स्वयम्भूरमणसमुद्र के आगे भी राज के अर्धच्छेदों की जो कल्पनी की है वह त्रिलोकप्रज्ञप्ति के उपर्युक्त सूत्र और ज्योतिषी देवों के भागहार के प्ररूपक सूत्र' के आश्रित युक्ति के बल पर की है। इस प्रकार से उन्होंने इन सूत्रों के साथ संगति बैठाने के लिए अपना यह स्वतन्त्र मत व्यक्त किया है कि स्वयम्भूरमणसमुद्र के आगे भी कुछ क्षेत्र हैं, जहाँ राजु के अर्धच्छेद पड़ते हैं।
(२) इसी द्रव्यप्रमाणानुगम में सासादनसम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानवी जीवों का द्रव्यप्रमाण दिखलाते हुए सूत्र में कहा गया है कि उनका प्रमाण पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र है। इन जीवों द्वारा अन्तर्मुहूर्त से पल्योपम अपहृत होता है। सूत्र १,२,६
इसकी व्याख्या में धवलाकार ने सासादनसम्य दृष्टि आदि सूत्रोक्त उन चार गुणस्थानवर्ती जीवों के अवहारकाल को पृथक्-पृथक् स्पष्ट किया है । उन्होंने कहा है कि सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि और सयतासंयत, इनका अवहारकाल आवलि का असंख्यातवां भाग न होकर असंख्यात आवलियों प्रमाण है।
इस पर वहाँ यह पूछने पर कि वह कहाँ से जाना जाता है, धवलाकार ने कहा है कि वह "उपशमसम्यग्दृष्टि स्तोक हैं, क्षायिक सम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं, और वेदगसम्यग्दृष्टि उनसे असंख्यातगणे हैं" इन अल्पबहत्व सूत्रों से जाना जाता है।
इस पर प्रकृत सूत्र के साथ विरोध की आशंका की हृदयंगम करते हुए धवलाकार ने स्वयं यह स्पष्ट कर दिया है कि सूत्र में जो ‘ऐदेहि पलिदोमवहिरदि अंतोमुहुत्तकालेण' यह कहा गया है उसके साथ कुछ विरोध नहीं होगा, क्योंकि 'अन्तर्मुहूर्त' में प्रयुक्त 'अन्तर्' शब्द यहाँ समीपता का वाचक है । तदनुसार मुहूर्त के समीपवर्ती काल को भी अन्तर्मुहूर्त से ग्रहण किया जा सकता है। ___ इस प्रकार अन्तर्मुहुर्त यद्यपि संख्यात प्रावलियों प्रमाण ही माना जाता है, फिर भी धवलाकार ने उपर्युक्त अल्पबहुत्व के साथ संगति बैठाने के लिए 'अन्तर्मुहूर्त' से असंख्यात आवलियों को भी ग्रहण कर लिया है। यह उनका स्वयं का अभिमत रहा है, इसे उन्होंने आगे (पु. ४, पृ० १५७ पर) प्रसंग पाकर स्वयं स्पष्ट कर दिया है।
(३) जीवस्थान-क्षेत्रानुगम में मिथ्यादृष्टि जीवों का क्षेत्र समस्त लोक है ।-सूत्र १,३,२ __इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है सूत्र में प्रयुक्त 'लोक' से सात राजुओं के घन को ग्रहण करना चाहिए । इस पर वहाँ शंका उपस्थित हुई है कि यदि सात राजुओं के घन-प्रमाण लोक को ग्रहण किया जाता है तो उससे पाँच द्रव्यों के आधारभूत आकाश का ग्रहण नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि उसमें सात राजुओं के घन-प्रमाण क्षेत्र सम्भव नहीं है। अन्यथा, "हेट्ठा मज्झे उरि" आदि गाथासूत्रों के अप्रमाण होने का प्रसंग प्राप्त होता है ।
इस पर शंका का समाधान करते हुए धवलाकार ने कहा है कि सूत्र में 'लोक' ऐसा
१. खेत्तेण पदरस्स वेछप्पणंगुलसयवग्गपडिभागेण ।-सूत्र १,२,५५ (पु० ३, पृ० २६८) २. असंजदसम्मादिट्टिट्ठाणे सव्वत्थोवा उव समसम्मादिट्ठी । खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । ___ वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ।-सूत्र १,८,१५-१७ (पु० ५, पृ० २५३-५६) ३. धवला, पु० ३, पृ० ६३-७० ४. धवला, पु० ४, पृ० ११ पर उद्धृत गाथासूत्र ६-८
वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति | ७२६
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