________________
अंग, दृष्टिवाद और पूर्वगत-इनके अन्तर्गत होने से क्रमशः उन छह के विषय में पृथक्-पृथक उस चार प्रकार के अवतार की प्ररूपणा की है।
१०. यहीं पर आगे गणनाकृति के प्ररूपक सूत्र (२,१,६६) की व्याख्या के प्रसंग में धवलाकार ने कहा है कि यह सूत्र दशामर्शक है, इसलिए यहाँ धन, ऋण और धन ऋण इस सब गणित की प्ररूपणा करनी चाहिए।
प्रकारान्तर से उन्होंने यह भी कहा है कि अथवा 'कृति' को उपलक्षण करके यहाँ गणना, संख्यात और कृति का भी लक्षण कहना चाहिए। तदनुसार उन्होंने इनके लक्षण को प्रकट करते हुए कहा है कि एक को आदि करके उत्कृष्ट अनन्त तक गणना कहलाती है। दो को आदि करके उत्कृष्ट अनन्त तक की गणना को संख्यात कहा जाता है। तीन को आदि करके उत्कृष्ट अनन्त तक की गणना का नाम कृति है।
पश्चात् यहाँ कृति, नोकृति अवक्तव्य के उदाहरणार्थ यह प्ररूपणा की जाती है, ऐसी प्रतिज्ञा करते हुए उसके विषय में ओधानुगम, प्रथमानुगम, चरिमानुगम और संचयानुगम इन चार अनुयोगद्वारों का उल्लेख किया गया है। इनमें प्रथम सीन की यहां संक्षेप में प्ररूपणा करके' तत्पश्चात् अन्तिम संचयानुगम की प्ररूपणा सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों के आश्रय से विस्तारपूर्वक की गयी है ।'
सूत्र-असूत्र-विचार
__इस 'कृति' अनुयोगद्वार में आगे तीन सूत्रों (६८,६६ और ७०) द्वारा करणकृति के भेदप्रभेदों का निर्देश किया गया है।
तत्पश्चात् "एवेहि सुत्तेहि तेरसण्हं मूलकरणकदीणंसंतपरूवणा कदा ॥७१॥" यह वाक्य सूत्र के रूप में उपलब्ध होता है । पर वास्तव में वह सूत्र नही प्रतीत होता, वह धवला टीका का अंश रहा दिखता है। ___कारण यह कि प्रथम तो इसकी रचना-पद्धति सूत्र-जैसी नहीं है । दूसरे इसमें जो यह कहा गया है कि इन सूत्रों द्वारा तेरह मूलक रण कृतियों की सत्प्ररूपणा मात्र की गयी है, यह पद्धति अन्यत्र सूत्रों में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती। धवलाकार वैसा स्पष्टीकरण कर सकते हैं - यह एक विचारणीय प्रसंग है।
११. वे वहाँ यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि इन (६८-७०) सूत्रों द्वारा तरह मूलकरण कृतियों की सत्प्ररूपणा मात्र की गयी है। अब इस देशामर्शक सूत्र (७०) द्वारा सूचित अधिकारों की प्ररूपणा की जाती है-इस प्रतिज्ञा के साथ उन्होंने आगे उससे सूचित पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन तीन अधिकारों का निर्देश किया है तथा यह स्पष्ट कर दिया है कि इन अधिकारों के बिना उन सूत्रों (६८-७०) द्वारा प्ररूपित मूलकरण कृतियों की वह सत्प्ररूपणा बनती नहीं है। इस स्पष्टीकरण के साथ आगे धवलाकार ने क्रम से पदमीमांसादि
१. यथा--ज्ञान, पृ० १८५-८६; श्रुतज्ञान, पृ० १८६-६१; अंगश्रुत, पृ० १६२-२०४; दृष्टि
वाद, पृ० २०४-१०; पूर्वगत पृ० २१०-२४; अग्रायणीयपूर्व पृ० २२५-३६ २. धवला, पु० ६, पृ० २७४-८० ३. वही, , पृ० २८०.३२१
वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति / ७३७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org