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यहाँ अन्तिम सूत्र की व्याख्या के प्रसंग में धवलाकार ने अन्वोगाढअल्पबहुत्वदण्डक को देशामर्शक कहकर उसके अन्तर्गत चार प्रकार के अल्पबहुत्व के कहने की प्रतिज्ञा की है और तदनसार आगे स्वस्थान व परस्थान के भेद से दो प्रकार के अव्वोगाढअल्पबहत्व की तथा दो प्रकार के मूलप्रकृतिअल्पबहुत्व की प्ररूपणा की है।'
१५. वेदनाभावविधान की दूसरी चूलिका में वृद्धिप्ररूपणा' अनुयोगद्वार के प्रसंग में अनन्तगुणवृद्धि किस से वृद्धि को प्राप्त होती है, इसे स्पष्ट करते हुए सूत्र में कहा गया है कि अनन्तगुणवृद्धि सब जीवों से वृद्धिंगत होती है।--सूत्र ४,२,७,२१४ ।
इसकी व्याख्या के प्रसंग में धवलाकार ने 'अब हम इस देशामर्शक सूत्र से सूचित परम्परोपनिधा को कहते हैं ऐसी प्रतिज्ञा करते हुए उस परम्परोपनिधा की विस्तार से प्ररूपणा की है।'
१६. वर्गणाखण्ड के अन्तर्गत 'कर्ग' अनुयोगद्वार में सूत्रकार द्वारा नाम व स्थापना आदि के भेद से दस प्रकार के कर्म की प्ररूपणा की गयी है । अन्त में उन्होंने यहाँ उस दस प्रकार के कर्म में समवदान कर्म (६) को प्रकृत बतलाया है-सूत्र ५,४,३१
इसकी व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि मूलतन्त्र में प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, आधाकर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्म ये छह कर्म प्रधान रहे हैं, क्योंकि वहाँ इनकी विस्तार से प्ररूपणा की गयी है। इसीलिए हम यहाँ इन छह कर्मों को आधारभूत करके सत्प्ररूपणा व द्रव्यप्रमाणानुगम आदि आठ अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा करते हैं। ऐसी सूचना करते हुए उन्होंने आगे आठ अनुयोगद्वारों के आश्रय से उन छह कर्मों की विस्तार से प्ररूपणा की है। ____ इस पर आपत्ति उठाते हुए शंकाकार ने कहा है कि यह अल्पबहुत्व असम्बद्ध है, क्योंकि इसके लिए कोई सूत्र नहीं है । इस का निराकरण करते हुए धवलाकार ने कहा है कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उसकी सूचना पूर्वप्ररूपित देशामर्शक सूत्र (५,४,३१) से की गयी है।
१७. कहीं शंका के रूप में भी देशामर्शक सूत्र का उल्लेख हुआ है । यथा
श्रुतज्ञानावरणीय के प्रसंग में श्रुतज्ञान के स्वरूप आदि का विचार करते हुए धवला में उसके शब्दलिंगज और अशब्दलिंगज ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। शब्दलिंगज श्रुतज्ञान के प्रसंग में यह सूचना की है कि यहाँ शब्दलिंगज श्रुतज्ञान की प्ररूपणा की जाती है।
यहां यह शंका उठायी गयी है कि इस देशामर्शक सूत (५,५,४३) द्वारा सूचित अशब्दलिंगज श्रुतज्ञान की प्ररूपणा क्यों नहीं की जा रही है। उत्तर में कहा गया है कि ग्रन्थ की अधिकता के भय से मन्दबुद्धि जनों के अनुग्रहार्थ भी यहाँ उसकी प्ररूपणा नहीं की जा रही है।
१८. वर्गणाखण्ड के अन्तर्गत 'बन्धन' अनुयोगद्वार में बन्धनीय (वर्गणा) की चर्चा विस्तार से की गयी है। वहाँ 'वर्गणाद्रव्यसमुदाहार' की प्ररूपणा में वर्गणाप्ररूपणा, वर्गणानिरूपणा व वर्गणाध्र वाध्र वानुगम आदि चौदह अनुयोगद्वारों का निर्देश है ।---सूत्र ५, ६, ७५ __ उनमें मूलग्रन्थकर्ता ने वर्गणाप्ररूपणा और वर्गणानिरूपणा दो ही अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की है, शेष वर्गणाध वाध्र वानुगम आदि बारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा उन्होंने नहीं की है।
१. धवला, पु० ११, पृ० १४७-२०५ २. धवला, पु० १२, पृ० १५८-६३ ३. धवला, पु० १३, प्र०६०-१६५ ४. धवला, पु० १३, पृ० २४६-४७
वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति / ७३६
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