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(१) जीवस्थान- द्रव्यप्रमाणानुगम में सूत्रकार ने क्षेत्र की अपेक्षा मिध्यादृष्टि जोवराशि का प्रमाण अनन्तानन्त लोक निर्दिष्ट किया है । --सूत्र १,२,४
इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने प्रसंगप्राप्त लोक के स्वरूप में उसे जगश्रेणि के घनप्रमाण कहा है। उन्होंने जगश्रेणि को सात राजुओं के आयाम प्रमाण और राजु को तिर्यग्लोक के मध्यम विस्तार प्रमाण कहा है ।
तिर्यग्लोक के विस्तार को कैसे लाया जाता है, यह पूछे जाने पर उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि जितनी द्वीप समुद्रों की संख्या है और रूप (एक) से अधिक अथवा किन्हीं आचार्यो के उपदेशानुसार संख्यात रूपों से अधिक जितने जम्बूद्वीप के अर्धच्छेद हैं उनको विरलित करके व प्रत्येक एक (१) अंक को दो (२) अंक मानकर उन सब को परस्पर गुणित करें । इस प्रकार जो राशि प्राप्त हो उससे अर्धच्छेद करने पर शेष रही राशि को गुणित करने पर राजु का प्रमाण प्राप्त होता है । यह जगश्रेणि के सातवें भाग प्रमाण रहता है ।
आगे पुनः यह पूछा गया है कि तिर्यग्लोक की समाप्ति कहाँ पर हुई है । उत्तर में कहा गया है कि उसकी समाप्ति तीनों वातवलयों के बाह्य भागों में हुई है । अर्थात् स्वयम्भूरमणसमुद्र की बाह्य वेदिका के आगे कुछ क्षेत्र जाकर तिर्यग्लोक समाप्त हुआ है। इस पर यह पूछने पर कि कितना क्षेत्र आगे जाकर उसकी समाप्ति हुई है, वहाँ कहा गया है कि असंख्यात द्वीपसमुद्रों के द्वारा जितने योजन- प्रमाण क्षेत्र रोका गया है, उनसे संख्यातगुणे योजन जाकर तिर्यग्लोक समाप्त हुआ है ।
इस पर फिर यह पूछा गया है कि यह कहाँ से जाना जाता है, उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि वह दो सौ छप्पन अंगुलों के वर्ग प्रमाण ज्योतिषी देवों के भागहार के प्ररूपक सूत्र ( १, २, ५५ ) तथा 'दुगुणद्गुणो दुवग्गो णिरंतरो तिरियलोगो' इस त्रिलोकप्रज्ञप्ति सूत्र से जाना जाता है ।
आगे धवलाकार ने इस प्रसंग में अन्य आचार्यों के व्याख्यान को असंगत ठहराते हुए यह कहा है कि प्रथम तो उनका वह व्याख्यान सूत्र के विरुद्ध पड़ता है, दूसरे उसका आश्रय लेने पर तदनुसार जगश्रेणि के सातवें भाग में आठ शून्य दिखते हैं। पर जगश्रेणि के सातवें भाग में वे आठ शून्य हैं नहीं, तथा उनके अस्तित्व का विधायक कोई सूत्र भी नहीं उपलब्ध होता है । इसलिए उन आठ शून्यों के विनाशार्थं कितनी भी अधिक राशि होनी चाहिए। वह राशि असंख्यातवें भाग अथवा संख्यातवें भाग से अधिक तो हो नहीं सकती, क्योंकि उसका अनुवाहक कोई सूत्र उपलब्ध नहीं होता। इसका कारण द्वीप-समुद्रों से रोके गये क्षेत्र के आयाम से संख्यातगुणा क्षेत्र स्वयम्भूरमणसमुद्र के बाह्य भाग में होना चाहिए, अन्यथा पूर्वोक्त सूत्रों के साथ विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है ।
प्रसंग के अन्त में धवलाकार ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि यद्यपि यह अर्थ पूर्वाचाय के सम्प्रदाय के विरुद्ध है तो भी आगामाश्रित युक्ति के बल से हमने उसकी प्ररूपणा की है । इसलिए 'यह ऐसा नहीं है' इस प्रकार का कदाग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि अतीन्द्रिय पदार्थो के विषय में छद्मस्थों के द्वारा कल्पित युक्तियाँ निर्णय की हेतु नहीं बनतीं । इसलिए इस विषय में उपदेश को प्राप्त करके विशेष निर्णय करना योग्य है ।'
१. धवला, पु० ३, पृ० ३२-३८
७२८ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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