Book Title: Shatkhandagama Parishilan
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 786
________________ ग्रन्थ के विषय में भिन्न-भिन्न अभिप्राय प्रकट किये हैं । जैसे १. कषायप्राभूत-धवलाकार का अभिप्राय कषायप्राभत मे उस पर यतिवषभाचार्य द्वारा विरचित 'चणि' का रहा है, इसे पीछे 'ग्रन्थकारोल्लेख' के प्रसंग में स्पष्ट किया जा चुका है। धवलाकार ने कषायप्राभूत को, विशेषकर उसकी चूणि को, काफी महत्त्व दिया है। मतभेद की स्थिति में यदि धवलाकार ने कहीं प्रसंगानुसार कषायप्राभत और आचार्य भतबलि के पथक-पथक मतों का उल्लेख मात्र किया है तो कहीं पर उन्होंने कषायप्रा चणि की उपेक्षा भी कर दी है। कहीं पर कायप्राभूतचूणि के साथ विरोध का प्रसंग प्राप्त होने पर उन्होंने उसे तंत्रान्तरभ कह दिया है तथा आगे उन दोनों में प्रकारान्तर से समन्वय का दृष्टिकोण भी अपनाया है। २. परिकर्म-धवलाकार ने अनेक प्रसंगों पर परिकर्म के कथन को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है व उसे सर्वाचार्य-सम्मत भी कहा है। इसके अतिरिक्त यदि उन्होंने कहीं पर उसके साथ सम्भावित विरोध का समन्वय किया है तो कहीं पर उसे अग्राह्य भी ठहरा दिया है। इसका अधिक स्पष्टीकरण पीछे ‘ग्रन्थोल्लेख' में 'परिकर्म' शीर्षक में किया जा चुका है। दो-एक उदाहरण उसके यहाँ भी दिये जाते हैं. सर्वाचार्यसम्मत-जीवस्थान-स्पर्शनानुगम में प्रसंग प्राप्त तियंग्लोक के प्रमाण से सम्बन्धित किन्हीं आचार्यों के अभिमत का निराकरण करते हुए धवलाकार ने उसे तद्विषयक सर्वाचार्यसम्मत परिकर्मसूत्र के विरुद्ध भी ठहराया है। इस प्रकार धवलाकार ने 'लोक सात राजुओं के धन-प्रमाण है' अपने इस अभिमत की पुष्टि में परिकर्म के इस प्रसंग को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है व उसे सर्वाचार्य-सम्मत कहा है-- "रज्जू सत्तगुणिदा जगसेढी, सा वग्गिदा जगपदरं, से ढीए गणिदजगपदरं घणलोगो होदि।" विरोध का समन्वय-धवलाकार की मान्यता रही है कि स्वयम्भूरमणसमुद्र की वेदिका के आगे असंख्यात द्वीप-समुद्रों से रोके गये योजनों से सस्यातगणे योजन जाव र हिय लोक समाप्त हुआ है। अपनी इस मान्यता में उन्होंने परिषम के इस कथन से विरोध की सम्भावना का निराकरण किया है १. धवला, पु० ६, पृ० ३३१ पर उपशम श्रेणि से उतरते हुए जीव का सासादनगुणस्थान को प्राप्त होने व न होने का प्रसंग। २. धवला, पु० ७, पृ० २३३-३४ में उपर्युक्त प्रसंग के पुनः प्राप्त होने पर ष०ख० सू० (२, ३, १३६) को महत्त्व देकर उसकी उपेक्षा कर दी गयी है । ३. देखिए धवला, पु० ६ में आहारकशरीर, आहारक.शरीरांगोपांग और तीर्थक र प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धविषयक प्रसंग । जीवों से सहित निरन्तर अनुभागस्थान उत्कृष्ट रूप में आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं, या असंख्यातलोकप्रमाण हैं, इस प्रसंग में भी धवलाकार के समन्वय के दृष्टिकोण को देखा जा सकता है । -पु० १२, पृ० २४४-४५ ४. धवला, पु० ४, पृ० १८३-८४; यही प्रसंग प्रायः इसी रूप में पु० ७, पृ० ३७१-७२ में भी देखा जा सकता है। ७३२ / षटखण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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