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ने कहा है कि वह परमगुरु के उपदेश से जानी जाती है । तदनुसार उन प्रमत्तसंयतों का प्रमाण पांच करोड़ तेरान लाख अट्ठानव हजार दो सौ छह (५६३९८२०६) है। इस पर पुनः यह पूछा गया है कि वह संख्या इतनी मात्र ही है, यह कैसे जाना जाता है । इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि वह आचार्यपरम्परागत जिनोपदेश से जाना जाता है।
यही प्ररूपणा का क्रम अप्रमत्तसंयतों की संख्या के विषय में भी रहा है।'
इस प्रकार सूत्र में प्रमत्तसंयतों और अप्रमत्तसंयतों की निश्चित संख्या का उल्लेख न होने पर भी धवलाकार ने उसका उल्लेख परमगुरु के उपदेश और आचार्य-परम्परागत जिनदेव के उपदेश के अनुसार किया है।
(२) यहीं पर आगे नरकगति के आश्रय से द्वितीयादि छह पृथिवियों के मिथ्यादष्टि नारकियों की संख्या को स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि जगश्रेणि के प्रथम वर्गमूल को आदि करके नीचे के बारह वर्गमूलों को परस्पर गणित करने से जो राशि प्राप्त हो, उतना दसरी पथिवी के मिथ्यादृष्टि नारकियों का द्रव्यप्रमाण है । इसी क्रम से आगे दस, आठ, छह, तीन और दो वर्गमूलों को परस्पर गुणित करने से क्रमशः तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठी और सातवीं पृथिवी के मिथ्यादृष्टि नारकियों का द्रव्यप्रमाण प्राप्त होता है। ___इस पर वहाँ यह पूछा गया है कि इतने वर्गमूलों का परस्पर संवर्ग करने पर द्वितीयादि पृथिवियों के नारकियों का द्रव्यप्रमाण होता है, यह कैसे जाना जाता है। उत्तर में कहा गया है कि वह आचार्यपरम्परागत अविरुद्ध उपदेश से जाना जाता है।
यहाँ सूत्र (१,२,२२) में सामान्य से द्वितीयादि पृथिवियों के मिथ्यादृष्टि नारकियों का प्रमाण क्षेत्र की अपेक्षा जगश्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र बतलाकर उसका आयाम प्रथमादि संख्यात वर्गमूलों के परस्पर गुणित करने से प्राप्त असंख्यात कोटि योजन प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है। इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने जो विशेष रूप से जगणि के बारह व दस आदि वर्गमूलों को ग्रहण किया है, उन्हें आचार्यपरम्परागत उपदेश के अनुसार ग्रहण किया है।
(३) जीवस्थान-कालानुगम में सूत्रकार द्वारा बादर पृथिवीकायिकादिकों का उत्कृष्ट काल कर्मस्थिति प्रमाण कहा गया है ।-सूत्र १,५,१४४
यहां धवला में यह शंका उठायी गयी है कि सत्र में निर्दिष्ट 'कर्मस्थिति' से क्या सब को की स्थितियों को ग्रहण किया जाता है या एक ही कर्म की स्थिति को ग्रहण किया जाता है। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि सब कर्मों की स्थितियों को न ग्रहण करके एक ही कर्म की स्थिति को ग्रहण किया गया है, उसमें भी दर्शनमोहनीय की ही सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति को ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि वही प्रधान है । इसका भी कारण यह है कि उसमें समस्त कर्मस्थितियां संग्रहीत हैं। इस प्रसंग में यह पूछे जाने पर कि यह कैसे जाना जाता है, धवलाकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह स्पष्टीकरण हमने गुरु के उपदेश के अनुसार किया है।
१. धवला, पु० २३, पृ० ८८-८६ २. वही, पृ० ८६ ३. धवला, पु० ३, पृ० १६६.२०१ ४. धवला, पु० ४, पृ० ४०२-३
७१८ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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