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प्रदेशस्थान से असंख्यातगुणा होन उसी का जघन्य प्रदेशस्थान होता है । गुणिकौशिक के जघन्य प्रदेशस्थान के समान गुणितघोलमान के प्रदेशस्थान से अनन्तभागहीन, असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन, संख्यातगुणहीन और असंख्यातगुणहीन स्वरूप से हानि को प्राप्त होनेवाले अपने इन स्थानों का गुणितघोलमान स्वामी होता है। कारण यह कि गुणितघोलमान के स्थानों के पांच वृद्धियां और पांच हानियाँ होती हैं, ऐसा गुरु का उपदेश है।' ___ इस प्रकार से धवलाकार ने प्रसंगप्राप्त ज्ञानावरणीय के अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदनास्थानों के यथासम्भव स्वामियों का उल्लेख आचार्यपरम्परागत उपदेश और गुरु के उपदेश के आधार से किया है।
(६) आगे इसी वेदनाद्रव्यविधान की चूलिका में सूत्रकार के द्वारा वर्गणाओं का प्रमाण श्रेणि के असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात निर्दिष्ट किया गया है। -सूत्र ४,२,४,१८१ ___इसकी व्याख्या करते हुए उस प्रसंग में धवलाकार ने कहा है कि सभी वर्गणाओं की दीर्घता समान नहीं है, क्योंकि वे आदिमवर्गणा से लेकर उत्तरोत्तर विशेष हीन स्वरूप से अवस्थित हैं । इस पर यह पूछने पर कि वह कैसे जाना जाता है, धवलाकार ने कहा है कि वह आचार्यपरम्परागत उपदेश से जाना जाता है।
यहीं पर आगे धवलाकार ने गुरु के उपदेश के बल से प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व इन छह अनुयोगद्वारों में वर्गणा-सम्बन्धी जीवप्रदेशों की प्ररूपणा करने की प्रतिज्ञा करते हुए यथाक्रम से उनकी प्ररूपणा की है।
(७) इसके पूर्व इस वेदनाद्रव्यविधान में ज्ञानावरणीय की अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना के स्वामी की प्ररूपणा के प्रसंग में "संजमं पडिवण्णो" सूत्र (४,२,४,६०) की व्याख्या में यह पूछा गया है कि यहां असंख्यातगुणित श्रेणि के रूप में कर्मनिर्जरा होती है, यह कैसे जाना जाता है । उत्तर में धवलाकार ने “सम्मत्तुप्पत्ती वि य" आदि दो गाथाओं को उद्धृत करते हुए यह कहा है कि वह इन गाथासूत्रों के द्वारा जाना जाता है। __इसी प्रसंग में आगे यह भी शंका उठी है कि यहां जो द्रव्य निर्जरा को प्राप्त हुआ है, वह बादर एकेन्द्रियादिकों में संचित द्रव्य से असंख्यातगुणा है, यह कैसे जाना जाता है । इसके उत्तर में प्रथम तो धवला में यह कहा गया है कि सूत्र में 'संजमं पडिवज्जिय' ऐसा न कहकर 'संजमं पडिवण्णो' यह जो कहा गया है उससे जाना जाता है कि यहां निर्जीर्ण द्रव्य त्रस व बादरकायिकों में संचित द्रव्य से असंख्यातगुणा है, क्योंकि आचार्य प्रयोजन के बिना क्रिया की समाप्ति को नहीं कहते हैं । इससे यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए कि स-स्थावरकायिकों में संचित द्रव्य से असंख्यातगुणे द्रव्य की निर्जरा करके संयम को प्राप्त हुआ है।
इसी शंका के समाधान में प्रकारान्तर से वहाँ यह भी कहा गया है—अथवा 'गुणश्रेणि की जघन्य स्थिति में प्रथम बार निषिक्त द्रव्य असंख्यात आवलियों के समयप्रमाण समयप्रबद्धों से युक्त होता है' इस प्रकार का जो आचार्य-परम्परागत उपदेश है उससे जाना जाता है कि यहाँ निर्जराप्राप्त द्रव्य असंख्यातगुणा है ।। १. धवला, पु० १०, पृ० २१४-१५ २. धवला, पु० १०, पृ० ४४४ ३. वही, पृ० २४४-४६ ४. धवला, पु० १०, पृ० २७८.८३ ७२० / षट्खण्डागम-परिशीलन
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