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आगे इसी श्रुतावतार में दूसरे किन्हीं के मत को प्रकट करते हुए यह भी स्पष्ट किया गया है-अन्य कोई कहते हैं कि जो महात्मा गुफा से आये थे उन्हें 'नन्दी', अशोकवन से आनेवाले को 'देव', पंचस्तूप से आनेवालों को 'सेन', शाल्मली वृक्ष के मूल में रहने वालों को 'वीर' और खण्डकेसर वृक्ष के मूल में रहने वालों को 'भद्र' कहा गया है। इस प्रकार इस मत के अनुसार किसी एक स्थान से आने वालों या वहां रहने वालों को किसी एक संघ में प्रतिष्ठित किया गया है, न कि पूर्व मत के अनुसार उन्हें दो-दो संघों में विभक्त किया गया है।'.
इसके अतिरिक्त इस मत के अनुसार 'गुणधर' नाम से किसी भी संघ को प्रतिष्ठापित नहीं किया गया है । यहाँ तो यह कहा गया है कि खण्डकेसरवृक्ष के मूल में रहनेवाले 'वीर' नाम से प्रसिद्ध हुए । आगे दो श्लोक (६६-१००) और भी इस प्रसंग से सम्बन्धित यहां प्राप्त होते हैं, पर उनमें उपयुक्त पदों का सम्बन्ध ठीक नहीं बैठ रहा, इससे ग्रन्थकार क्या कहना चाहते हैं; यह स्पष्ट नहीं होता।
इस सब स्थिति को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता है कि आ० अर्हबली ने 'गुणधर' संघ की स्थापना 'गुणधर' आचार्य के नाम पर की है। इससे आचार्य गुणधर को आचार्य अर्हद्वली से पूर्व का कहना कुछ प्रामाणिक नहीं दिखता। __ इन्द्रनन्दी के द्वारा प्ररूपित उपर्युक्त संघस्थापन की प्रक्रिया को देखते हुए उसे विश्वसनीय भी नहीं माना जा सकता है ।
यह भी यहां विशेष ध्यान देने योग्य बात है कि जिस प्राकृत पट्टावली के आधार से आ० अहंबली का समय वीर नि० सं० ५६५ या विक्रम सं० ६५ निर्धारित किया गया है, उस पट्टावली में अहंबली के नाम के आगे माघनन्दी, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि इन आचार्यों के नामों का उल्लेख होने पर भी उन गुणधर आचार्य का उल्लेख न तो अर्हद्बली के पूर्ववर्ती आचार्यों में किया गया है और न उनके पश्चाद्वर्ती आचार्यों में ही कहीं किया गया है, जब कि उसमें धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि का उल्लेख एक अंग के धारकों में किया गया है।' आचार्य-परम्परागत विशिष्ट श्रुत के धारक और कसायपाहुड जैसे महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तग्रन्थ के रचयिता उन गुणधर आचार्य का उल्लेख उस पट्टावली में न किया जाय, यह आश्चर्यजनक है। कारण इसका क्या हो सकता है, यह विचारणीय है।
इस प्रकार आ० अर्हबली के द्वारा स्थापित उपर्युक्त संघों के अन्तर्गत 'गुणधर' संघ की स्थापना आ० गुणधर के नाम पर की गयी है, ऐसा मानकर उनको अर्हबली से पूर्ववर्ती मानना काल्पनिक ही कहा जा सकता है, प्रामाणिकता उसमें कुछ नहीं है । ७. गौतमस्वामी
धवलाकार ने इनका उल्लेख ग्रन्थकर्ता के प्रसंग में द्रव्यश्रुत के कर्ता व अनुतन्त्र कर्ता के रूप में किया है। वे अर्थकर्ता भगवान् वर्धमान जिनेन्द्र के ग्यारह गणधरों प्रमुख रहे हैं । उनका यथार्थ नाम इन्द्रभूति था, गोत्र उनका ‘गौतम' रहा है । इस गोत्र के नाम पर वे
१. इ० श्रुतावतार ६७-६८ २. यह नन्दि-आम्नाय की प्राकृत पट्टावली 'जैनसिद्धान्त भास्कर', भाग १ (सन् १९१३) में ___अथवा ष०ख० पु. १ की प्रस्तावना पृ० २४-२७ में देखी जा सकती है। ३. देखिए धवला, पु० १, पृ० ६४-६५ व ७२ तथा पु० ६, पृ० १२६-३० ६७४ | षट्खण्डागम-परिशीलन
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