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इसके उत्तर में धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि सचमुच में सूत्र वही हो सकता है जो अविरुद्ध अर्थ का प्ररूपक हो। किन्त यह सत्र नहीं है। जो सत्र के समान होता है वह भी सत्र है, इस प्रकार उपचार से उसे सूत्र माना गया है। इसी प्रसंग में वहां उपर्युक्त गाथा को उद्धृत करते हुए यह भी कहा गया है कि भूतबलि भट्टारक न गणधर हैं, न प्रत्येक बुद्ध हैं, न श्रुतकेवली हैं और न अभिन्नदशपूर्वी हैं; जिससे उसे सूत्र कहा जा सके। इस प्रकार से अप्रमाण का प्रसंग प्राप्त होने पर उसका निराकरण करते हुए आगे धवलाकार ने कहा है कि यथार्थतः उसके सूत्र न होने पर भी राग, द्वेष और मोह का अभाव होने से प्रमाणीभूत परम्परा से आने के कारण उसे अप्रमाण नहीं ठहराया जा सकता है।'
इससे सिद्ध है कि कषायप्राभूत और षट्खण्डागम, जिन्हें सूत्रअन्य माना जाता है, यथार्थ में सूत्र नहीं है, फिर भी राग, द्वेष और मोह से रहित महर्षियों की अविच्छिन्न परम्परा से आने वाले अर्थ के प्ररूपक होने के कारण उन्हें भी उपचार से सूत्रग्रन्थ मानने में किसी प्रकार का विरोध नहीं है।
धवला में अनेक प्रसंगों पर पुष्पदन्त और भूतबलि का उल्लेख सूत्रकार के रूप में किया गया है। यथा
(१) इदि णायमाइरियपरंपरागयं मणेणावहारिय पुज्वाइरियाणुसरणं तिरयणहेउत्ति पुप्फदंताइरियो मंगलादीणं छण्णं सकारणाणं परूवणट्ट सुत्तमाह-पु० १, पृ०८
(२) एवं पृष्ठवतः शिष्यस्य सन्देहापोहनार्थमुत्तरसुत्तमाह ।—पु० १, पृ० १३२
(३) आइरियकहियं संतकम्म-कसायपाहुडाणं कथं सुत्तत्तणमिदि चे ण, तित्ययरकहियस्थाणं गणहरदेवकयगंथरयणाणं बारहंगाणं आइरियपरम्पराए णिरंतरमागयाणं जुगसहावेण ओहट्ट तीस भायणाभावेण पुणो ओहट्टिय आगयाणं पुणो सुठ्ठबुद्धीणं खयंदठूण तित्यवोच्छेदभएण वज्जभीरूहि गहिदत्थेहि आइरिएहि पोत्थएसु चढावियाणं असुत्तत्तणविरोहादो।
-पु० १, पृ० २२१ (४) संपहि चोद्दसण्हं जीवसमासाणमत्थित्तमवगदाणं सिस्साणं तेसिं चेव परिमाणपडि. बोहणट्ठ भूदबलियारियो सुत्तमाह । -पु० ३, पृ० १
(५) चोद्दससु अणियोगद्दारेसु..."सुत्तकारेण किमट्ठ परूवणा ण कदा? ण ताव अजाणंतेण ण कदा, चउवीसअणियोगद्दारसरूव महाकम्मपयडिपाहुड पारयस्स, भूदबलिभयवंतस्स तदपरिण्णाणविरोहादो..।-पु० १४, पृ० १३४-३५ ।।
(६) संपहि इमाओ पंचण्हं सरीराणं गेज्झाओ इमाओ च अगेझाओ त्ति जाणावेतो भवबलिभारओ उत्तरसुत्तकलावं परूवेदि।-पु० १४, पृ० ५४१
ऐसे प्रचुर उदाहरण यहाँ धवला से दिए जा सकते हैं, जिनसे आ० पुष्पदन्त और भूतबलि सूत्रकार तथा उनके द्वारा विरचित षट्खण्डागम सूत्रग्रन्थ सिद्ध होता है।
इस परिस्थिति में आ० गुणधर को सूत्रकार और आ० धरसेन को केवल वाचकप्रवर कहना उचित नहीं दिखता, जबकि धरसेनाचार्य के शिष्य आ० पुष्पदन्त और भूतबलि भी सूत्रकार के रूप में प्रख्यात हैं। इस प्रकार गुणधर के समान धरसेन को भी श्रुत के महान् प्रतिष्ठापक समझना चाहिए।
१. धवला, पु० १३, पृ० ३८१-८२ ६७२ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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