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इस स्थिति को देखते हुए वह पूरा ही सूत्र पुनरुक्त है।' (४) 'गति-आगति' चूलिका (8) में ये दो सूत्र आये हैं
"अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइया मिच्छाइट्ठी णि रयादो उन्वट्टिदसमाणा कदि गदीओ आगच्छति ॥६३॥ एक्कं तिरिक्खगदि चेव आगच्छति ।।६४॥"-पु. ६, पृ० ४५२
ये ही दो सूत्र आगे पुनः प्राय: उसी रूप में इस प्रकार प्राप्त होते हैं
"अधो सत्तमाए पुढवीए रइया णिरयादो रइया उव्वट्टिदसमाणा कदि गदीओ आगच्छति ॥२०३।। एक्कं हि चेव तिरिक्खगदि आगच्छंति ति ॥२०४॥"-पु. ६, पृ० ४८४
विशेषता इतनी रही है कि पूर्व सूत्र (६३) में “मिच्छाइट्ठी' पद अधिक है तथा आगे के सत्र (२०३) में 'णेरइया' पद की पुनरावृत्ति की गयी है। अभिप्राय में कुछ भेद नहीं हुआ। 'मिथ्यादृष्टि' पद के रहने न रहने से अभिप्राय में कुछ भेद नहीं होता, क्योंकि सातवीं पृथिवी से जीव नियमतः मिथ्यात्व के साथ ही निकलता है।
यहाँ सूत्र २०४ की धवला टीका में शंकाकार ने कहा है कि पुनरुक्त होने से इस सूत्र को नहीं कहना चाहिए। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उसे अतिशय जडबुद्धि शिष्यों के हेतु कहा गया है।
इस प्रकार से प्रसंगप्राप्त पुनरुक्ति का निराकरण करके धवलाकार ने उन सूत्रों को निर्दोष बतलाया है।
प्रकृत में यद्यपि धवलाकार ने 'णेरइया' पद की पुनरावृत्ति के विषय में कुछ स्पष्टीकरण नहीं किया है, पर आगे (सत्र २०६ में) छठी पृथिवी के आश्रय से भी ऐसा ही प्रसंग पुनः प्राप्त होने पर धवलाकार ने वहाँ प्रसंगप्राप्त शंका के उत्तर में इस प्रकार का स्पष्टीकरण करके पुनरुक्ति दोष को टाल दिया है-"णिरयादो णिरयपज्जायादो, उवट्टिदसमाणा विणट्ठा संता, रइया दवट्ठियणयावलंबणेण रइया होदण'......1"-पु० ६, पृ० ४८५-८६
इस परिस्थिति में यही समझा जा सकता है कि ग्रन्थ-रचना व व्याख्यान की आचार्यपरम्परागत पद्धति प्रायः ऐसी ही रही है, भले ही उसमें सूत्र का यह लक्षण घटित न हो
अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारव गढनिर्णयम् ।
निर्दोषं हेतुमत्तथ्यं सूत्रमित्युच्यते बुधः ॥२-पु. ६, पृ० २५६ प्रकरण से सम्बन्धित पुनरुक्ति
जीवस्थान-चूलिका के अन्तर्गत प्रथम प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका है तथा आगे वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत एक 'प्रकृति' अनुयोगद्वार भी है। इन दोनों प्रकरणों में बहुत से सूत्रों की पुनरावृत्ति हुई है । विशेषता यह रही है कि कहीं एक सूत्र के दो हो गये हैं, तो कहीं दो सूत्रों का एक हो गया है । दोनों प्रकरणगत सूत्रों का मिलान इस प्रकार किया जा सकता है
१. धवलाकार ने सूत्र ८ (पु० ६, पृ० २३८) की व्याख्या में 'एदेण पुव्वुत्तपयारेण दंसणमोह
णीय उवसामेदि त्ति पुवुत्तो चेव एदेण सुत्तेण संभालिदो' कहकर उस पुनरुक्ति को स्पष्ट
भी कर दिया है। २. सूत्र का यह लक्षण कषायप्राभृत के गाथासूत्रों में घटित होता है।
७०२ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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