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द्वारा केवलिसमुद्घात का करना अभिप्रेत रहा है ।
वह केवलिसमुद्घातविषयक विकल्प 'भगवती आराधना' (२१०५-७) के समान सर्वार्थसिद्धि (E-४४) और तत्त्वार्थवार्तिक (E-४४) में भी उपलब्ध होता है। वहाँ भी कहा गया है कि जब केवली की आयु अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाती है तथा नाम, गोत्र और वेदनीय की स्थिति आयु के समान रहती है, तब वे समस्त वचनयोग और मनोयोग का तथा बादर काययोग का निरोध करके सूक्ष्म काययोग का आलम्बन लेते हुए सूक्ष्मक्रिया-प्रतिपाती ध्यान पर आरूढ़ होने के योग्य होते हैं। किन्तु जब उनकी आयु तो अन्तर्मुहुर्त शेष रहती है, पर शेष तीन अघातिया कों की स्थिति उससे अधिक होती है तब सयोगि-जिन चार समयों में आत्मप्रदेशों के विसर्पण रूप में दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात करके आत्मप्रदेशों का संकोच करते हुए शेष रहे चार अघातिया कर्मों की स्थिति को समान कर लेते हैं और पूर्व शरीर के प्रमाण सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म-क्रियाप्रतिपाती ध्यान को ध्याते हैं । तत्पश्चात् समुच्छिन्न क्रियानिति ध्यान पर आरूढ़ होते हैं।
समद्धात विषयक यह दूसरा मत सम्भवतः मूल में कर्मप्रकृतिप्राभूत या षट्खण्डागम के कर्ता का रहा है। कारण यह है कि धवलाकार ने इस मत का आधार लोकपूरण-समुद्घात में बीस संख्या का नियम बतलाया है। यथा____ "येषामाचार्याणां लोकव्यापिकेवलिषु विंशतिसंख्यानिभस्तेषां मतेन केचित् समुद्घातयन्ति, केचिन्न समुद्घातयन्ति ।"-पु० १, पृ० ३०२
यह बीस संख्या का नियम षट्खण्डागम में कार्मणकाययोगियों के प्रसंग में उपलब्ध होता है। वहाँ यह एक सूत्र देखा जाता है"सजोगिकेवली दव्वपमाणेण केवडिया? संखेज्जा ।"
-सूत्र १,२,१२३ (पु० ३, पृ० ४०४) यद्यपि सूत्र में स्पष्टतया बीस संख्या का निर्देश नहीं किया गया है, पर उसकी व्याख्या में धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि पूर्व आचार्यों के उपदेशानुसार साठ जीव होते हैं—प्रतर में बीस, लोकपरण में बीस और फिर उतरते हुए प्रतर में बीस ही होते हैं। इस प्रकार यहाँ लोकपूरण में बीस संख्या का ही उल्लेख किया गया है।'
इसके अतिरिक्त सर्वप्रथम प्रसंगप्राप्त शंका में द्वितीय विकल्प (निर्हेतुक) की असम्भावना को व्यक्त करते हुए शंकाकार ने यह कहा था कि यदि समुद्घात को निर्हेतुक माना जाता है तो उस परिस्थिति में सभी के समुद्घात को प्राप्त होते हुए मुक्ति का प्रसंग प्राप्त होता है । पर वैसा सम्भव नहीं है. क्योंकि उस स्थिति में लोकपूरणसमुद्घातगत केवलियों की बीस संख्या और वर्षपृथक्त्व प्रमाण अन्तर का नियम नहीं घटित होता है ।
यह वर्षपृथक्त्व प्रमाण अन्तर भी षट्खण्डागम में उपलब्ध होता है । वहाँ कार्मणकाययोग
१. एत्थ पुन्वाइरियोवएसेण सट्ठी जीवा हवंति । कुदो? पदरे बीस, लोगपूरणे बीस, पुणरवि
ओदरमाणा पदरे बीस चेव भवंति त्ति ।-पु० ३, पृ० ४०४ २. न द्वितीयविकल्पः, सर्वेषां समुद्घातगमनपूर्वकं मुक्तिप्रसंगात् । अस्तु चेन्न, लोकव्यापिनां केवलिनां विंशतिसंख्या-वर्षपृथक्त्वानन्तर (?) नियमानुपपत्तेः । -पु० १, पृ० ३०१ (पाठ कुछ अशुद्ध हुआ प्रतीत होता है ।)
वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति / ७१३
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