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है और यह असूत्र है' ऐसा, आगम में जो निपुण हैं वे कहें, किन्तु हम इस विषय में कुछ कहने के लिए समर्थ नहीं हैं, क्योंकि हमें इस प्रकार का उपदेश प्राप्त नहीं है।' ___इस प्रकार धवलाकार ने आगम पर निष्ठा रखते हुए यह अभिप्राय प्रकट कर दिया है कि जिन्हें परम्परागत श्रुत से यह ज्ञात है कि अमुक सूत्र है और इसके विपरीत सूत्र नहीं है, वे अधिकारपूर्वक वैसा कह सकते हैं; पर उपदेश के अभाव में हम वैसा निर्णय करके आगम की अवहेलना नहीं कर सकते।
(४) यही प्रसंग यहीं पर आगे चलकर अल्पबहुत्वानुगम में पुनः प्राप्त हुआ है। वहाँ प्रसंग के अनुसार ये सूत्र प्राप्त होते हैं
"सुहमवणप्फदिकाइया असंखेज्जगुणा । वणप्फदिकाइया विसेसाहिया। णिगोदजीवा विसेसाहिया।" --सूत्र २,११,७३-७५
यहाँ सूत्र ७५ की व्याख्या के प्रसंग में शंकाकार कहता है कि यह सूत्र निरर्थक है, क्योंकि वनस्पतिकायिकों से भिन्न निगोदजीव नहीं पाये जाते। दूसरे, वनस्पतिकायिकों से पृथग्भूत पृथिवीकायिक आदिकों में निगोद जीव हैं, ऐसा आचार्यों का उपदेश भी नहीं है; जिससे इस वचन की सूत्ररूपता का प्रसंग प्राप्त हो सके।
इस शंका का निराकरण करते हुए धवलाकार कहते हैं कि तुम्हारा कहना सत्य हो सकता है. क्योंकि बहत से सूत्रों में वनस्पतिकायिकों के आगे 'निगोद' पद नहीं पाया जाता तथा बहुत से आचार्यों को वह अभीष्ट भी है। किन्तु यह सूत्र ही नहीं है, ऐसा अवधारण करना योग्य नहीं है। ऐसा तो वह कह सकता है जो चौदह पूर्वो का पारंगत हो अथवा केवलज्ञानी हो। परन्तु वर्तमान काल में वे नहीं हैं तथा उनके पास में सुनकर आने वाले भी इस समय नहीं प्राप्त होते। इसलिए सूत्र को आसादना से भयभीत आचार्यों को दोनों ही सूत्रों का व्याख्यान करना चाहिए।
इसी प्रसंग में कुछ अन्य शंका-समाधानों के पश्चात् यह भी एक शंका की गयी है कि सत्र में वनस्पतिनामकर्म के उदय से युक्त सब जीवों के 'वनस्पति' संज्ञा दिखती है, तब फिर बादर निगोदजीवों से प्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित जीवों के यहां 'वनस्पति' संज्ञा का निर्देश सत्र में क्यों नहीं किया गया। इस विषय में धवलाकार को यह कहना पड़ा हैं कि यह गौतम से पूछना चाहिए, गौतम को बादर निगोद जीवों से प्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित जीवों की वनस्पति' संज्ञा अभीष्ट नहीं है, यह हमने उनका अभिप्राय कह दिया है।'
यहाँ धवलाकार ने परस्पर भिन्न उपलब्ध दोनों प्रकार के सूत्रों में सूत्ररूपता का निर्णय करना शक्य न होने से सूत्रासादना से भीत आचार्यों को दोनों ही विभिन्न सूत्रों का व्याख्यान करने की प्रेरणा की है।
(५) बन्धस्वामित्वविचय में संज्वलनमान और माया इन दो प्रकृतियों के बन्धक-अबन्धकों के प्रसंग में धवला में कहा गया है कि संज्वलन क्रोध के विनष्ट होने पर जो अनिवृत्तिकरण
१. धवला, पु०७, पृ० ५०६-७ २. यहां पीछे इसी प्रकार के सूत्र २,११,५७-५६, आगे सूत्र २,११,१०२-६ तथा २,११-२,
७७-७६ भी द्रष्टव्य हैं। ३. धवला, पु० ७, पृ० ५३९-४१
वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति | ७१५
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