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यह भी यहाँ ध्यातव्य है कि धवलाकार ने उपर्युक्त शंका-समाधान में मूल ग्रन्थकार को तो वचनयोगासवजनित कर्मों के आगमन से बचाया है, पर वे स्वयं उस कर्मास्रव से नहीं बच सके हैं। कारण यह है कि मूल ग्रन्थकार के द्वारा अप्ररूपित उन बारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा उन्होंने सूत्रकार द्वारा प्ररूपित दो अनुयोगद्वारों को देशामर्शक कहकर स्वयं ही बहुत विस्तार से की है।'
इस प्रकार पुनरुक्ति और सूत्रसूचित विषय की प्ररूपणा के न करने से सम्बन्धित कुछ शंकाओं का धवलाकार द्वारा जो समाधान किया गया है, भले ही उसमें अधिक बल न रहा हो, पर उससे धवलाकार आचार्य वीरसेन का सूत्रकार के प्रति बहुमान व आगमनिष्ठा प्रकट है । आठ प्रकार के ज्ञानाचार में चौथा 'बहुमान' है। इसके लक्षण में मूलाचार में यह कहा गया है
सुत्तत्थं जप्पंतो वाचतो चावि णिज्जराहे, ।
आसादणं कुज्जा तेण किवं होदि बहुमाणं ॥५-८६।। अर्थात् सूत्रार्थ का जो अध्ययन, अध्यापन और व्याख्यान आदि किया जाता है वह निर्जरा का कारण है। इसके लिए कभी सूत्र व आचार्य आदि की आसादना नहीं करनी चाहिए ।
सूत्रासादना से बचने के लिए धवलाकार ने अनेक प्रसंगों पर वज्रभीरु आचार्यों को सावधान भी किया है, यह पीछे अनेक उदाहरणों से स्पष्ट भी हो चुका है । जैसे-धवला, पु० १, पृ० २१७-२२ आदि के कितने ही प्रसंग।
जैसा कि ऊपर के विवेचन से स्पष्ट है, इसका निर्वाह धवलाकार ने पूर्ण रूप से किया है। इसके पूर्व के काल-विनयादिरूप ज्ञानाचार (मूलाचार ५,६६-६०) के अनुष्ठान में भी वे तत्पर रहे हैं। कालाचार में उनके उद्यत रहने का प्रमाण उनके द्वारा आगमद्रव्यकृति के प्रसंग में प्ररूपित कालशुद्धिकरणविधान है । देखिए धवला, पु. ६, पृ० २५३-५६ सूत्र-विरुख प्याख्यान का निषेध
जीवस्थान-स्पर्शनानुगम में ज्योतिषी देव सासादनसम्यग्दृष्टियों के स्पर्शन की प्ररूपणा करते हुए उनके स्वस्थान क्षेत्र के प्रसंग में धवलाकार को ज्योतिषी देवों के भागहार के प्ररूपक सत्र (१,२,५५) के साथ संगति बैठाने के लिए स्वयम्भूरमणसमुद्र के आगे राज के अर्धच्छेद मानना पड़े हैं। इस पर शंकाकार ने कहा है कि ऐसा स्वीकार करने पर "जितने द्वीप-समुद्र हैं तथा जितने जम्बूद्वीप के अर्धच्छेद हैं, एक अधिक उतने ही राजु के अर्धच्छेद होते हैं। इस परिकर्म के साथ यह व्याख्यान क्यों न विरोध को प्राप्त होगा। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है-हाँ, यह व्याख्यान उस परिकर्म के साथ तो विरोध को प्राप्त होगा, किन्तु सूत्र' के साथ विरोध को नहीं प्राप्त होता है, इसलिए इस व्याख्या को ग्रहण करना चाहिए, न कि उस परिकम के कथन को; क्योंकि वह सूत्र के विरुद्ध है । और सूत्र के विरुद्ध व्याख्यान होता नहीं
१. तम्हा दोण्णमणियोगद्दाराणं पुचिल्लाणं परूवणा देसामासिय त्ति काऊण सेसबारसण्ण
मणियोगद्दाराणं [परूवणं] कस्सामो । धवला, पु० १४, पृ० १३५ (उनकी यह प्ररूपणा
धवला में पृ० १३५-२२३ में की गयी है)। २. खेत्तेण पदरस्स वेछप्पण्णं गुलसयवग्गपडिभागेण ।-सूत्र १,२,५५ (पु० ६ ८)
वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्ध
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