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बण्डों में उक्त २४ अनुयोगद्वारों में से कोई भी अनुयोगद्वार नहीं है। पर, जैसा कि धवला में स्पष्ट किया गया है, उनका सम्बन्ध उक्त महाकम्मपयडिपाहुड से ही रहा है।'
षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवस्थान से सम्बद्ध जो नौ चूलिकाएं हैं, उनमें ८वीं 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' चूलिका है। उसमें दर्शनमोह की उपशामना व क्षपणा तथा चरित्र (संयमासंयम व सकलसंयम) की प्ररूपणा की गयी है। पर ये अधिकार या अनुयोगद्वार उपर्युक्त २४ अनयोगद्वारों में नहीं रहे हैं। ये अनुयोगद्वार पेज्जदोसपाहुड के अन्तर्गत १५ अर्थाधिकारों में उपलब्ध होते हैं। इस परिस्थिति में क्या यह समझा जाय कि आचार्य धरसेन व उनके शिष्य भूतबलि महाकम्मपडिपाहुड के साथ पेज्जदोसपाहुड के भी मर्मज्ञ रहे हैं, इसलिए वे इन अधिकारों को यहाँ षट्खण्डागम में समाविष्ट कर सके हैं ? - इसका तात्पर्य यही है कि आ० गुणधर और धरसेन क्रम से पेज्जदोसपाहुड और महाकम्मपयडिपाहुड में तो पूर्णतया पारंगत रहे हैं, साथ ही वे अन्य प्रकीर्णक श्रुत के भी ज्ञाता थे। इस से एक की अपेक्षा दूसरे को अल्पज्ञानी या विशिष्टज्ञानी कहना युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होता।
(२) यह ठीक है कि आ० गुणधर ने पेज्जदोसपाहुड का उपसंहार किया है और आ. धरसेन ने स्वयं किसी ग्रन्थ का उपसंहार नहीं किया। पर इस विषय में यह विचारणीय है कि आ० धरसेन ने जब समस्त महाकम्मपयडिपाहुड को ही अपने सुयोग्य शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलि दोनों को समर्पित कर दिया, तब उनके लिए उसके उपसंहार करने का प्रश्न ही नहीं उठता। उसका उपसंहार तो उनके शिष्य भूतबलि ने षट्खण्डागम के रूप में किया है।
इस प्रकार से सूत्रकार के रूप में तो भूतबलि सामने आते हैं ।
पर सूत्रकार तो वस्तुतः न गुणधर हैं, न धरसेन हैं और न पुष्पदन्त-भूतबलि ही हैं । कारण यह कि सूत्र का जो यह लक्षण निर्दिष्ट किया गया है, तदनुसार इनमें कोई भी सूत्रकार सिर नहीं होता
सुत्तं गणधरकहियं तहेव पत्तेयबुद्धकहियं च ।
सुदकेवलिणा कहियं अभिण्णदसपुग्विकहियं च ।। इस सूत्र-लक्षण को धवलाकार ने 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में आनुपूर्वियों के संख्याविषयक मतभेद के प्रसंग में उद्धृत किया है। मनुष्यानुपूर्वी प्रकृति के विकल्पों के प्ररूपक सूत्र १२० की व्याख्या के विषय में दो भिन्न मत रहे हैं। उन्हें कुछ स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि इसके विषय में उपदेश को प्राप्त करके यही व्याख्यान सत्य है, दूसरा असत्य है। इस प्रकार का निश्चय करना चाहिए। प्रसंगप्राप्त वे दोनों ही उपदेश सूत्रसिद्ध हैं, क्योंकि आगे उन दोनों ही उपदेशों के आश्रय से अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है।
-सूत्र १२३-२७ व आगे सूत्र १२८-३२ इस पर वहाँ यह शंका उठी है कि दो विरुद्ध अर्थों का प्ररूपक सूत्र कैसे हो सकता है।
१. धवला, पु० १, पृ० १२४-३० व प्रस्तावना ७२-७४ की तालिकाएं। २. ष०ख० सूत्र १,६-८, १-१६ (पु. ६) ३. क.पा० गाथा ५-६ ४. धवला, पु० १३, पृ० ३८१-८२
प्रन्थकारोल्लेख / ६७१
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