________________
वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति
आ० वीरसेन एक लब्धप्रतिष्ठ प्रामाणिक टीकाकार रहे हैं। वे प्रतिभाशाली बहुश्रुत विद्वान् थे। उनके सामने पूर्ववर्ती विशाल साहित्य रहा है, जिसका उन्होंने गम्भीर अध्ययन किया था व यथावसर उसका उपयोग अपनी इस धवला टीका की रचना में किया-यह पीछे 'ग्रन्थोल्लेख' और 'ग्रन्थकारोल्लेख' शीर्षकों से स्पष्ट हो चुका है। वीरसेनाचार्य की प्रामाणिकता (सूत्र को महत्त्व)
प्रतिपाद्य विषय का स्पष्टीकरण व उसका विस्तार करते हुए भी धवलाकार ने अपनी ओर से कुछ नहीं लिखा; जो कुछ भी उन्होंने लिखा है वह परम्परागत श्रुत के आधार से ही लिखा है। इस प्रकार से उन्होंने अपनी प्रामाणिकता को सुरक्षित रक्खा है। मतभेद का प्रसंग उपस्थित होने पर उन्होंने सर्वप्रथम सूत्र को महत्त्व दिया है। यथा
(१) जीवस्थान-चूलिका के अन्तर्गत 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' चूलिका में चारित्रप्राप्ति के विधान की प्ररूपणा करते हुए उस प्रसंग में धवलाकार ने कहा है कि जो मिथ्यादृष्टि जीव वेदकसम्यक्त्व और संयमासंयम दोनों को एक साथ प्राप्त कर रहा है उसके अनिवृत्तिकरण के बिना दो ही करण होते हैं। कारण यह है कि अपूर्वकरण के अन्तिम समय में वर्तमान इस मिथ्यादष्टि का स्थिसिसत्त्व प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादष्टि के स्थितिसत्त्व से संख्यातगुणा हीन होता है। इसे स्पष्ट करते हुए इसी प्रसंग में आगे धवला में कहा गया है कि अपूर्वकरण परिणाम सभी अनिवृत्तिकरण परिणामों से अनन्त गणे हीन होते हैं, यह कहना योग्य नहीं है, क्योंकि उसका प्रतिपादक कोई सूत्र नहीं है । इसके विपरीत उपर्युक्त संख्यातगुणे हीन स्थितिसत्त्व की सिद्धि इसी सूत्र (१,६-८,१४) से हो जाती है।
इस प्रकार यहाँ उपर्युक्त सूत्र के बल पर धवला में यह सिद्ध किया है कि जो मिथ्यादृष्टि वेदकसम्यक्त्व और संयमासंयम दोनों को एक साथ प्राप्त करने के अभिमुख है उसका स्थितिसत्त्व प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा संख्यातगुणा हीन होता है, अनन्तगुणा हीन नहीं।
(२) इसके पूर्व जीवस्थान-कालानुगम में एक जीव की अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट
१. धवला, पु. ६, पृ० २६८-६९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org