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में नहीं पाये जाते हैं।
किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द और वट्टकेराचार्य ये दो भिन्न ही प्रतीत होते हैं। यद्यपि कुन्दकन्दविरचित ग्रन्यगत कुछ गाथाएं मूलाचार में प्रायः उसी रूप में उपलब्ध होती हैं, पर दोनों की विवेचन-पद्धति में भिन्नता देखी जाती है। उदाहरणस्वरूप द्वादशानुप्रेक्षाओं को ले लीजिए
(१) संसारानुप्रेक्षा के प्रसंग में आ० कुन्दकुन्द ने संसार को पांच प्रकार का बतलाकर आगे द्रव्यादि पांच परिवर्तनों के स्वरूप को भी स्पष्ट किया है।'
पर मलाचार में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से ही संसार का निर्देश किया गया है. तथा वहाँ किसी भी परिवर्तन के स्वरूप को नहीं दिखलाया गया है।
इसी प्रसंग में मूलाचार में "किं केण कस्स कत्थ वि' आदि गाथा का (देखिए पीछे प० ६६२-६३) उपयोग किया गया है जो सम्भवतः कुन्दकुन्दाचार्य के समक्ष ही नहीं रही।
(२) सातवीं अनुप्रेक्षा के प्रसंग में कुन्दकुन्द ने शरीर की अशुचिता को दिखलाया है, पर मूलाचार में वहाँ प्रायः अशुभरूपता को प्रकट किया है।
(३) आस्रवानुप्रेक्षा के प्रसंग में आ० कुन्दकुन्द ने मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगों को आस्रव बतलाकर उनके भेद का निर्देश करते हुए उन सबके स्वरूप को स्पष्ट भी किया है।
परन्तु मलाचार में राग, द्वेष, मोह, इन्द्रियाँ, संज्ञाएं, गारव, कषाय, मन, वचन और काय इनको कर्म के आस्रव बतलाकर उसी क्रम से उनमें से प्रत्येक को (योगों को छोड़कर) विशद भी किया है।"
मलाचार में यहाँ यह विशेषता रही है कि आ० कुन्दकुन्द ने जिन मिथ्यात्वादि का उल्लेख आस्रव के प्रसंग में किया है, उनका उल्लेख वहां संवर के प्रसंग में किया गया है (गा० ५२)।
(४) निर्जरान्प्रेक्षा के प्रसंग में आ० कुन्दकुन्द ने निर्जरा के स्वकालपक्व (सविपाक) और तप से क्रियमाण (अविपाक) इन दो भेदों का निर्देश किया है, पर मूलाचार में तप की प्रमुखता से उसके देशनिर्जरा और सर्वनिर्जरा ये दो भेद निर्दिष्ट किए गये हैं।
(५) धर्मानुप्रेक्षा के प्रसंग में आः कुन्दकुन्द ने सम्यक्त्वपूर्वक ग्यारह प्रकार के सागारधर्म १. 'पुरातन-जैन वाक्य-सूची' की प्रस्तावना, पृ० १८-१६ २. उदाहरण के रूप में कुन्दकुन्द-विरचित द्वादशानुप्रेक्षा की १,२,१४,२२ और २३ ये गाथाएँ
मलाचारगत 'द्वादशानुप्रेक्षा' में क्रम से १, २, ६, ११ और १२ गाथांकों में देखी जा
सकती हैं। ३. देखिए गाथा २४-३८ ४. मूला० गा० ८, १३-२० ५. कन्द० गा० ४३-४६ तथा मूलाचार गाथा ३०-३६ । यहाँ यह स्मरणीय है कि मुलाचार
गा० २ में अनूप्रेक्षाओं के नामों का निर्देश करते हुए प्रकृत अनुप्रेक्षा का उल्लेख 'अशचित्त' के रूप में किया है, पर यथाप्रसंग उसके स्पष्टीकरण में 'असुह' शब्द का उपयोग किया है। 'असुह' शब्द से अशुभ और असुख दोनों का ग्रहण सम्भव है। गाथा ३४ में 'सरीर
मसुभं' व गा० ३५ 'कलेवरं असुई' भी कहा गया है । ६. गा० ४७-६० ७. गा० ३७-४७ ८. फन्दकुन्द गा० ६७ व मूलाचार गा० ५४
प्रन्थकारोल्लेख / ६६५
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