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त० सू०
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इस प्रसंग में दोनों ग्रन्थगत इन अन्य प्रसंगों को भी देखा जा सकता हैविषय
मलाचार विनय के भेद
६-२३
--५-१६७ वैयावृत्त्य
६-२४
५-१६२ स्वाध्याय
९.२५
५-१६६ व्युत्सर्ग
६-२६
५-२०६ (व्युत्सर्ग और ध्यान में दोनों ग्रन्थों मे क्रमव्यत्यय हुआ है) ध्यानभेद आदि
६,२८-४४
५,१६७-२०८ अन्य प्रसंग भी देखिए(१) "मिथ्यादर्शनाविरति-प्रमाद-कषाय-योगा बन्धहेतवः।"-त०सू०८-१
मिच्छादसण-अविरदि-कसाय-जोगा हवंति बंधस्स ।
आऊसज्झवसाणं हेदवो तेदु णायव्वा ।।--मूलाचार १२-१८२ (२) "सकसायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः ।"-त०सू० ८-२
जीवो कसायजुत्तो जोगादो कम्मणो दु जे जोगा।
गेण्हइ पोग्गलदवे बंधो सो होदि णायव्वो॥-मूला १२-१८३ (शब्द-साम्य भी यहां द्रष्टव्य है) तत्त्वार्थसत्र (८वां अध्याय) के अन्तर्गत कर्म का यह प्रसंग भी अन्य कार्मिक ग्रन्थ पर आधारित न होकर प्रायः इस मूलाचार पर आधारित रहा दिखता है।' दोनों ग्रन्थगत और भी शब्दार्थ-सादृश्य देखिए"मोहक्षयात् ज्ञान-दर्शनावरणान्त रायक्षयाच्च केवलम् ।"-त०सू० १०-१
मोहस्सावरणाणं खयेण अह अंतरायस्स य एव ।
उप्पज्जइ केवलयं पयासयं सव्वभावाणं ॥--मूला० १२-२०५ इस स्थिति को देखते हुए इसमें सन्देह नहीं रहता कि तत्त्वार्थसूत्र पर मलाचार का सर्वाधिक प्रभाव रहा है। यद्यपि उसके रचयिता और रचनाकाल के विषय में विशेष कुछ ज्ञात नहीं है. फिर भी उसकी विषयवस्तु और उसके विवेचन की क्रमबद्ध अतिशय व्यवस्थित पद्धति को देखते हए वह एक साध्वाचार का प्ररूपक प्राचीन ग्रन्थ ही प्रतीत होता है।
उसकी कुछ हस्तलिखित प्रतियों में उसके कुन्दकन्दाचार्य-विरचित होने का संकेत मिलता है तथा उसकी वसुनन्दी-विरचित वृत्ति की अन्तिम पुष्पिका में यह सूचना भी की गयी है___ "इति मूलाचारविवृतौ द्वादशोऽध्यायः । कुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत मूलाचाराख्यविवृतिः । कृतिरियं वसुनन्दिनः श्रीश्रमणस्य।"
इससे कुछ विद्वानों का यह मत बन गया है कि वह कुन्दकुन्दाचार्य के द्वारा रचा गया है। उनका कहना है कि प्रतियों में उसके रचयिता के रूप में जिन 'वट्टकेराचार्य, वट्टकेर्याचार्य और वट्टके रकाचार्य' नामों का उल्लेख किया गया है, वे नाम कहीं गुर्वावलियों व पट्टातलियों आदि
१. मूलाचार के १२वें 'पर्याप्ति' अधिकार में जिस क्रम से व जिस रूप में प्रकृति, स्थिति,
अनुभाग और प्रदेशबन्ध की प्ररूपणा की गयी है, त०सू० के ८वें अध्याय में उसी क्रम से व उसी रूप में उन चारों बन्धों की प्ररूपणा की गयी है, जिसमें शब्दसाम्य भी अधिक रहा है।
६६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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