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गंधव अग्गिवेसा सयस्सिहे आयवं च असम च ।
अणव भोम रिस हे सवढे रक्खसे ईया ।।-ज्यो० क०, पृ० २७-२८ यहाँ और धवला में इन मुहूर्तनामों का जो निर्देश किया गया है, उसमें भिन्नता बहुत है।
दिवसनाम
इसी प्रसंग में आगे धवला में, पन्द्रह दिनों का पक्ष होता है, यह स्पष्ट करते हुए 'दिवसानां नामानि' सूचना के साथ यह श्लोक उ किया गया है'
नन्दा भद्रा जया रिक्ता पूर्णा च नियमः क्रमात् ।
देवताश्चन्द्र-सूर्येन्द्रा आकाशो धर्म एव च ।। पूर्वोक्त ज्योतिष्करणक की वृत्ति में 'तथा चोक्तं चन्द्रप्रज्ञप्तौ' इस सूचना के साथ इन तिथियों के नाम इस प्रकार निर्दिष्ट किये गये हैं
"नन्दा, भद्रा, जया, तुच्छा, पुण्णा पक्खस्स पन्नरसी, एवं तिगुणा तिगुणा तिहीओ" यास्तु रात्रितिथयस्तासामेतानि नामानि-- . ... 'उक्तं च चन्द्रप्रज्ञप्तावेव'..... पन्नरस राईतिही पण्णत्ता । तं जहा-"उग्गवई भोगवई जसोमई सव्वसिद्धा सुहनामा, पुणरवि उग्गवई भोगवई जसवई सव्वसिद्धा सुहनामा । एवं तिगुणा एता तिहीओ सव्वसिं राईणं” इति ।
जोतिष्क रण्डक के टीकाकार मलयगिरि सूरि ने पूर्वांग व पूर्व आदि संख्याभेदों के प्रसंग में उत्पन्न मतभेदों की चर्चा करते हुए यह स्पष्ट किया है कि स्कन्दिलाचार्य की प्रवृत्ति में दुषमाकाल के प्रभाव से दुर्भिक्ष के प्रवृत्त होने पर साधुओं का पठन-गुणन आदि सब नष्ट हो गया था। पश्चात् दुर्भिक्ष के समाप्त हो जाने पर व सुभिक्ष के प्रवृत्त हो जाने पर दो संघों का मिलाप हुआ-एक वलभी में और दूसरा मथुरा में। उसमें सूत्र व अर्थ की संघटना से परस्पर में वाचनाभेद हो गया। सो ठीक भी है, क्योंकि विस्मृत सूत्र और अर्थ का स्मरण कर-करके संघटना करने पर अवश्य ही वाचनाभेद होने वाला है, इसमें अनुपपत्ति (असंगति) नहीं है। इस प्रकार इस समय जो अनुयोगद्वार आदि प्रवर्तमान हैं वे माथुर वाचना का अनुसरण करने वाले हैं तथा ज्योतिष्करण्डक सूत्र के कर्ता आचार्य वलभी-वाचना के अनुयायी रहे हैं। इस कारण इसमें जो संख्यास्थानों का प्रतिपादन किया गया है वह वलभीवाचना के अनुसार हैं, इसलिए अनुयोगद्वार में प्रतिपादित संख्यास्थानों के साथ विषमता को देखकर घृणा नहीं करनी चाहिए।
मलयगिरि सूरि के इस स्पष्टीकरण को केवल संख्याभेदों के विषय में ही नहीं समझना चाहिए । यही परिस्थिति अन्य मतभेदों के विषय में भी रह सकती है।
२८. विशेषावश्यक भाष्य-यह भाष्य जिनभद्र क्षमाश्रमण (७वीं शती) के द्वारा आवश्यक सूत्र के प्रथम अध्ययनस्वरूप 'सामायिक' पर लिखा गया है। इसमें आ० भद्रबाहु (द्वितीय) द्वारा उस 'सामायिक' अध्ययन पर निर्मित नियुक्तियों की विशेष व्याख्या की गयी है।
१. धवला, पु० ४, पृ० ३१६ २. ज्यो०क० मलय० वृत्ति गा० १०३-४, पृ० ६१ ३. देखिए ज्योतिष्क० मलय० वृत्ति २-७१, पृ० ४१
अनिर्दिष्ट नाम ग्रन्थ / ६४१
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